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तीर्थकर प्राचार्य यतिवृषभ का अभिप्राय है । धवलाटीका में लिखा है--"यतिवृषभोपदेशात् सर्वाघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थितेः साम्याभावात् सर्वेपि कृतसमुद्घाताः सन्तो निवृत्तिमुपढौकन्ते"---प्राचार्य यतिवृषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय-गुणस्थान के चरम समय में सम्पूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति में समानता का अभाव होने से सभी केवली समुद्घातपूर्वक ही मोक्ष प्राप्त करते हैं । आगे यह भी कथन किया गया है--"येषामाचार्याणां लोकव्यापि-केवलिषु विशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयंति, केचिन्न समुद्घातयंति । के न समुदघातयंति ? येषां संसृतिव्यक्तिः कर्मस्थित्या समाना, ते न समुद्घातयंति, शेषाः समुद्घातयंति' (पृष्ठ ३०२, भाग १)--जिन प्राचार्यों ने लोकपूरण समुद्घात करनेवाले केवलियों की संख्या नियमरूप से बीस मानी है, उनके अभिप्रायानुसार कोई जीव समुद्घात करते हैं और कोई समुद्घात नहीं करते हैं । कौन आत्माएँ समुद्घात नहीं करती हैं ? जिनके संसृति की व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल, जिसे आयु कर्म के नाम से कहते हैं, उस आयु की नाम, गोत्र तथा वेदनीय कर्मों के समान स्थिति है, वे केवली समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली समुद्घात करते हैं। अन्तिम शुक्लध्यान
समुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति अथवा व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति ध्यान के होने पर प्राणापान अर्थात् श्वासोच्छ्वास का गमनागमन कार्य रुक जाता है। समस्त काय, वचन तथा मनोयोग निमित्त से उत्पन्न सम्पूर्ण प्रदेशों का परिस्पंद बन्द हो जाता है । उस ध्यान के होने पर परिपूर्ण संवर होता है । उस समय अठारह हजार शील के भेदों का पूर्ण स्वामित्व प्राप्त होता है । चौरासी लाख उत्तर गुणों की पूर्णता भी प्राप्त होती है।
सम्यग्दर्शन का श्रेष्ठ भेद परमावगाढ़ सम्यक्त्व तो तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त हो गया था। ज्ञानावरण का क्षय होने से सम्यग्ज्ञान
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