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तीर्थंकर ऋषभनाथ भगवान के लोकोत्तर जीवन को देख तथा परम मङ्गलमय उपदेश को सुनकर जहाँ अगणित जीवों ने अपना कल्याणसाधन किया, वहाँ दीर्घ संसारी मरीचिकुमार पर उसका रञ्चमात्र भी असर नहीं पड़ा। यथार्थ में काललब्धि का भी महत्वपूर्ण स्थान है । उसके निकट आने पर मरीचिकुमार के जीव ने सिंह की पर्याय में धर्म को धारण करने का लोकोत्तर साहस किया था।
भरत का अपूर्व भाग्य
___ भरत महाराज सदृश महान ज्ञानी के भाई, छोटी बहिन ब्राम्ही आदि ने दीक्षा ली, किन्तु भरत महाराज अयोध्या को लौट गए और दिग्विजय आदि साँसारिक व्यग्रताओं में संलग्न हो गए, क्योंकि उनकी परिग्रह परित्याग की पुण्य वेला समीप नहीं आई थी। जब काललब्धि का योग मिला, तो दीक्षा लेकर भरत सम्राट् शीघ्र ही ज्ञान-साम्राज्य के स्वामी बन गए । मुनिपदवी लेने के पश्चात् उन्हें फिर पारणा करने तक का प्रसङ्ग नहीं प्राप्त हुआ । उत्तरपुराण का यह कथन कितना अर्थपूर्ण है :
आदितीर्थकृतो ज्येष्ठ-पुत्रो राजसु पंडश । ज्यायांश्चक्री मुहूर्तेन मुक्तोयं कस्तुलां वजेत् ॥७४--४६।।
आदिनाथ तीर्थकरके ज्येष्ठ पुत्र, सोलहवें मनु, प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज ने अंतर्मुहूर्त के अनन्तर ही कैवल्य प्राप्त किया था। उनकी बराबरी कौन कर सकता है ?
उस समय धर्म तीर्थकर की मङ्गलमयी वाणी के प्रसाद से अगणित जीव अपने कल्याण में संलग्न हो गए। उसे देखकर यह प्रतीत होता था, कि भोगभूमि का पर्यवसान होने के उपरान्त नवीन ही धर्मभूमि का उदय हुआ है । तीर्थंकर भगवान के कलंकमुक्त उज्ज्वल जीवन को देखकर भव्य जीव उनकी वाणी की यथार्थता को भली प्रकार समझते थे । समवशरण में आने वाले जीवों के हृदय में यह गहरा प्रभाव पड़ता था, कि रत्नत्रय धर्म के बल से जब इन परम पुरुषार्थी प्रभु
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