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तीर्थकर पूरणानि स्वात्मप्रदेश-विसर्पणतश्चतुभिः समयैः कृत्वा पुनरपि तावद्भिरेव समयैः समुपहृत-प्रदेश-विसरणः समी-कृत-स्थितिविशेषकर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरपरिमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति' (पृष्ठ ३५६, अध्याय ६ सूत्र ४४) ।
महापुराण में लिखा है :--
स हि योगनिरोधार्थ उद्यतः केवली जिनः । समुद्घात-विधि पूर्व प्राविः कर्यान्निसर्गतः ॥२१-१८६॥
स्नातक केवली भगवान जब योगों का निरोध करने के लिए तत्पर होते हैं, तब वे उसके पूर्व ही स्वभाव से समुद्घात की विधि करते हैं।
___ समुद्घात विधि का स्पष्टीकरण इस प्रकार है :--पहले समय में उनके केवल प्रात्म प्रदेश चौदह राज ऊंचे दंड के ग्राकार होते है। दूसरे समय में कपाट अर्थात् दरवाजे के आकार को धारण करते हैं। तृतीय समय में प्रतर रूप होते हैं। चौथे समय में समस्त लोक में व्याप्त हो जाते हैं। इस प्रकार वे जिनेन्द्र चार समय में समस्त लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित होते हैं ।
आत्मा की लोक-व्यापकता
इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि ब्रह्मवादी ब्रह्म को संपूर्ण जगत् में व्याप्त मानता है । जैन दृष्टि से उसका कथन सयोगी-जिनके लोकपूरण समुद्घात काल में सत्य चरितार्थ होता है, क्योंकि लोकपूरण की अवस्था में उन जिनेन्द्र परमात्मा के आत्म प्रदेश समस्त लोक में विस्तारवश व्याप्त होते हैं । ब्रह्मवादी सदा ब्रह्म को लोकव्यापी कहता है, इससे उसका कथन अयथार्थ हो जाता है।
लोकपूरण समुद्घात के अनंतर आत्म-प्रदेश पुनः प्रतर रूपता को दूसरे समय में धारण करते हैं। तीसरे समय में कपाट रूप होते हैं तथा चौथेलसमय में दंड रूप होते हैं और पूर्व शरीराकार हो
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