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तीर्थकर निश्चयेन चैतन्याभ्यंतरवर्तिस्वभावत्वाच्च अंतरात्मा" (संस्कृत टीका पृ० ३६६)--व्यवहार नय से अष्ट कर्मों के भीतर रहने से तथा निश्चय नय की अपेक्षा चैतन्य के भीतर विराजमान रहने से अन्तरात्मा कहा है । इससे यह स्पष्ट होता है कि आत्मप्रवाद नाम के सप्तम पूर्व में आत्मा के विषय में विविध अपेक्षायों का आश्रय ले सर्वाङ्गीण प्रकाश डाला गया है।
विद्यानुवाद का प्रमेय
दशम पूर्व विद्यान वाद के विषय म धवला टीका में लिखा है--कि यहअंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं का और अन्तरीक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, छिन्न इन आठ महा निमित्तों का वर्णन करता है । अाज भी विद्यानुवाद का कुछ अंश किन्हीं-किन्हीं शास्त्र भंडारों में हस्तलिखित प्रति के रूप में मिलता है । उसके स्वाध्याय से ज्ञात होता है कि मंत्र विद्या में भी जैन साधुओं ने बड़ी प्रगति की थी।
__ अक्षरों का विशेष रूप में रचा गया समुदाय मंत्र है । उच्च श्रुतज्ञान के सिवाय श्रेष्ठ अवधि, मनःपर्यय ज्ञानधारी ऋषिवर ज्ञाननेत्रों से शब्दों और उनके द्वारा होने वाले पौद्गलिक परिवर्तनों को जान सकते थे। जैसे हम नेत्रों से स्थूल वस्तुओं को देखते हैं, वैसे वे सूक्ष्म परमाणुगों तक को ज्ञान नेत्र से देखते थे । जिस प्रकार विष आदि पदार्थों के द्वारा रक्त आदि पर प्रभाव पड़ता है, इस प्रकार का परिवर्तन ये मुनीन्द्र शब्दों के द्वारा उत्पन्न होते हुए देखते थे ।
उदाहरण के लिए सर्पदंशजनित विष प्रसार को रोकने के हेतु चिकित्सक औषधियों का प्रयोग करता है । शब्दों की सामर्थ्य को प्रत्यक्ष जानने वाले इन जैन ऋषियों ने ऐसे शब्दात्मक गूढ़ मंत्रों की संयोजना की, जिससे अत्यन्त अल्पकाल में विष उतर जाता है । आज के लोग प्रायः इस विद्या के अपरिचयवश इस विज्ञान को ही
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