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तीर्थंकर
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द्वारा स्वयं किए गए कर्मों के माहात्म्य से उत्पन्न हुआ है, अत्यन्त दुस्तर है, व्यसनरूपी भँवरों से भरा हुआ है । दोषरूपी जल - जन्तुनों से व्याप्त है, अपार है, प्रत्यन्त गहरा होने से उसकी थाह का पता नहीं है । वह परिग्रहधारी जीवों के द्वारा कभी भी नहीं तिरा जा सकता है--'" प्रतार्यं ग्रंथिकात्मभिः ।" उस अलौकिक महासागर के पार जाने के लिए सम्यक्ज्ञानरूपी नौका आवश्यक है -- " सज्ज्ञाननावा संतार्यं ।” भगवान के द्वारा आत्मज्ञान की जागृति होती थी । इससे अगणित प्राणी सम्यक्ज्ञान रूपी नौका को प्राप्त कर लेते थे ।
ये तीर्थकर परमगुरु ज्ञानामृत द्वारा सन्ताप दूर करनेवाले चन्द्र सदृश थे । भव्य जीव रूपी तृषित पृथ्वी के लिए दया रूपी जल से परिपूर्ण जलधर समान थे । भ्रम तथा मिथ्यात्व रूपी अनादिकालीन अन्धकार का नाश करनेवाले सूर्य तुल्य प्रतीत होते थे ।
समवशरण विस्तार
संसार सिन्धु में डूबते हुए जीवों की रक्षा करता हुआ यह समवशरण अनुपम तथा अलौकिक जहाज समान दिखता था ।
१ ऋषभनाथ तार्थंकर का समवशरण द्वादश योजन विस्तारयुक्त था । शेष तीर्थंकरों का समवशरण क्रमशः आधा ग्राधा योजन कम विस्तार वाला था । वीर भगवान का एक योजन विस्तारयुक्त समवशरण था । निर्वाणभक्ति में पार्श्वनाथ भगवान का समवशरण सवा योजन विस्तारयुक्त
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समवशरणमानं योजनं द्वादशादि । जिनपति यदु- यावद्योजनाधर्धहानिः ॥ कथयति निपार्श्वे योजनैकं सपादम् । निगदित - जिनवीरे योजनैकं प्रमाणम् ||२६||
तिलोयपण्णत्ति में कहा है कि यह कथन अवसर्पिणीकाल की अपेक्षा है । उत्सर्पिर्णी काल में हीनक्रम के स्थान में विपरीत क्रम होगा । उसमें अंतिम तीर्थंकर का समवशरण द्वादश योजन प्रमाण होगा ।
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