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तीर्थकर
[ २४३ जगत्रितयनाथोपि धर्मक्षेत्रेवनारतम् ।
उप्त्वा सद्धर्मबीजानि न्यर्षि चद्धर्मवृष्टिभिः ।।४७---३२१॥
त्रिलोकीनाथ ने धर्मक्षेत्र में सद्धर्मरूपी बीज बोने के साथ ही साथ धर्मवृष्टि के द्वारा उसको सींचा भी था ।
आत्म-तत्व की लोकोत्तरता
अनादिकाल से जीव बंध मार्ग की कथा, शिक्षा, चर्या में प्रवीणता दिखाता रहा है। काम, भोग सम्बन्धी वार्ता से जगत का निकटतम परिचय रहा है । अविभक्त (अद्वैत) आत्मा की बात उसे कठिन प्रतीत होती है ! समयसार में कहा है :--
___ सुदपरिचिदाणुभूदा सध्यस्स वि कामभोगबंधकहा ।
एयत्तस्सु वलंभो गरि ण सुल्होऽदिहत्तरस ॥४॥
सब लोगों को काम तथा भोग विषयक बंध की कथा सुनने में आई है, परिचय में पाई है और अनुभव में भी आई है; इसलिए वह सुलभ है किन्तु रागादि रहित आत्मा के एकत्व की बात' न कभी सुनी, न परिचय में आई और न अनुभव में आई; अतएव यह सुलभ नहीं है।
___ अनादि अविद्या के कारण अपनी आत्मा सम्बन्धी वार्ता पराई सी दिखती है और अनात्म परिणति एवं जगत् के जंजाल में फंसने वाली बात मधुर लगती है । रोगी को अपथ्य आहार अच्छा लगता है । यही दशा मोह रोग से पीड़ित इस जीव की है। ऐसे रोगी की सच्ची चिकित्सा तीर्थंकर भगवान के द्वारा होती है । इसीलिए भगवान को भिषग्वर' अर्थात् वैद्यशिरोमणि और उनकी वाणी को 'औषधि' कहा है। भगवान ऋषभदेव एवं उनके पश्चात्कालीन शष तीर्थंकरों ने अपनी मुक्तिदायिनी महौषधि के द्वारा जगत के मोहज्वरजनित सन्ताप को दूर किया था। इससे अगणित भव्य जीवों ने आत्म सम्बन्धी सच्ची नीरोगता (स्वस्थता) प्राप्त की।
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