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विहार के स्थान
भगवान ने सम्पूर्ण भव्यों को मोक्षमार्ग में लगाने की दृष्टि से धर्मतीर्थ प्रवर्तन हेतु सर्वदेशों में विहार किया था । तीर्थंकरों का विहार धर्मक्षेत्रों में कहा गया है । हरिवंशपुराण में लिखा है : -- मध्यदेशे जिनेशेन धर्मतीर्थे प्रवर्तते ।
सर्वेष्वपि च देशेषु तीर्थमोहो न्यवर्तत् ॥३ सर्ग - - १॥
तीर्थंकर
मध्यदेश में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के उपरांत उन वीर भगवान ने सम्पूर्ण देशों में विहार करके धर्म के विषय में अज्ञान भाव का निवारण किया था ।
भगवान ने भारतवर्ष में ही विहार नहीं किया था, किन्तु भारत के बाहर भी वे गए थे । उनका विहार धर्म क्षेत्र में हुआ था । आर्यखण्ड में यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान आदि देशों का समावेश होता है । भगवान का समवशरण पाँच मील, पाँच फर्लांग तथा सौ गज ऊँचाई पर रहता था । ऐसी स्थिति में यह आशंका, कि म्लेच्छ समान आचरण करने वाले नामतः आर्यों की भूमि में भगवान कैसे रहते होंगे, सहज ही शान्त हो जाती है । भगवान को भूतल पर उतरने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी । पृथ्वी चाहती थी कि देवाधिदेव के चरणस्पर्श द्वारा मैं कृतार्थ हो जाऊँ, किन्तु वे भगवान भूतल का स्पर्श तक नहीं करते थे । इसके सिवाय एक बात और ध्यान देने की है, कि जिनेन्द्रदेव की सेवा में संलग्न इन्द्र तथा उनके परिकर असंख्य देवों के निमित्त से सर्वप्रकार की सुव्यवस्था हो जाती थी । तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य सामान्य नहीं होता । उसके समान अन्य पुण्य नहीं कहा गया है । वह अद्भुत है ।
विदेशों में वीतरागता तथा अहिंसा तत्वज्ञान से संबंधित सामग्री का सद्भाव यह सूचित करता है, कि उस प्रदेश में पवित्रता का बीज बीने के लिए अवश्य धर्म-तीर्थंकर का विहार हुआ था । महापुराणकार ने कहा है :--
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