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तीर्थकर
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दिव्यध्वनि का निरोध
__भगवान की दिव्यध्वनि का खिरना अब बन्द हो गया है, इससे सूर्य अस्त के समय जैसे सरोवर के कमल मुकुलित हो जाते हैं उसी प्रकार सब सभा हाथ जोड़े हुए मुकुलित हो रही है ।
कैलाश पर भरतराज
इस समाचार को सुनते ही भरत चक्रवर्ती तत्काल कैलाश पर्वत पर पहुँचे, उनकी तीन परिक्रमा करके स्तुति की।
महामह-महापूजां भक्त्या निवर्तयन्स्वयं । चतुर्दशदिनान्येवं भगवंतमसेवत् ॥३३७॥
चक्रवर्ती ने महामह नाम की महान पूजा भक्तिपूर्वक स्वयं की तथा चौदह दिन पर्यन्त भगवान की सेवा की।
यहाँ यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, कि सर्व सामग्री का सन्निधान होते हुए भी आदिनाथ जिनेन्द्र की लोककल्याण निमित्त खिरने वाली दिव्य वाणी बन्द हो गई, क्योंकि क्षण-क्षण में विशेष विशुद्धता को प्राप्त करने वाले इन प्रभु की शुद्धोपयोग रूप अग्नि अत्यधिक प्रज्वलित हो गई है और अब उसमें अघातिया कर्मों को भी स्वाहा करने की तैयारी प्रात्मयज्ञ के कर्ता जिनेन्द्र ने की है । प्रारम्भ में निर्दयता पूर्वक पाप कर्मों को नष्ट किया था और अब शुभ भावों द्वारा बाँधी गई पुण्य प्रकृतियों का भी शुद्ध भावरूपी तीक्ष्ण तलवार के द्वारा ध्वंस का कार्य शीघ्र प्रारम्भ होने वाला है। संसार के जीवों की अपेक्षा प्रिय और पूज्य मानी गई तीर्थंकर प्रकृति तक अब इन वीतराग प्रभु को सर्वथा क्षययोग्य लगती है, क्योंकि ऐसा कोई भी कर्म का उदय नहीं है, जो सिद्ध पदवी के प्राप्त करने में विघ्नरूप न हो । पंचाध्यायी में लिखा है :--
नहि कर्मोदयः कश्चित् जन्तोर्यः स्यात् मुखावहः । सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षप्यात् स्वरूपतः ॥२--२५०॥
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