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तीर्थकर उपदेश का सार
___ संक्षेप में भगवान के उपदेश का भाव हरिवंशपुराण में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है । प्राचार्य कहते हैं-जिनेन्द्रदेव ने कहा था सम्पूर्ण सुखों की खानि तुल्य धर्म है, उसे सर्वप्रकार के प्रयत्न द्वारा प्राणियों को पालना चाहिये । वह धर्म जीवों पर दया आदि में विद्यमान है । देव समुदाय में तथा मनुष्यों में जो इन्द्रिय और विषयजनित सुख प्राप्त होता है, वह सब धर्म सेउ त्पन्न हुआ है । जो कर्मक्षय से उत्पन्न आत्मा के आश्रित तथा अनन्त निर्वाण का सुख है, वह भी धर्म से ही उत्पन्न होता है । सूक्ष्म रूप से दया, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य, अमूर्छा (परिग्रह त्याग) मुनियों का धर्म है और स्थूल रूप से उनका पालन गृहस्थों का धर्म है । गृहस्थों का धर्म दान, पूजा, तप तथा शील इस प्रकार चतुर्विध कहा गया है । यह धर्म भोग-त्याग स्वरूप है । सम्यग्दर्शन इस धर्म का मूल हे । उससे महान् ऋद्धि युक्त देवों की लक्ष्मी प्राप्त होती है । मुनि धर्म के द्वारा पुष्ट मोक्ष सुख प्राप्त होता है।
जिनेन्द्रोऽथि जगौ धर्मः कार्यः सर्वसुखाकरः । प्राणिभिः सर्वयत्नेन स्थितः प्राणिदयादिषु ॥१०--४॥ सुखं देवनिकायेषु मानुषेषु च यत्सुखं । इंन्द्रियार्थसमुद्भूतं तत्सर्व धर्मसंभवं ॥५॥ कर्मक्षयसमुद्भू तमपवर्गसुखं च यत् । प्रात्माधीनमनंतं तद् धर्मादेवोपजायते ॥६॥ दयासत्यमथास्तेयं ब्रह्मचर्यममूर्छता । सूक्ष्मतो यतिधर्मः स्यात्स्थूलतो गृहमेधिनां । दानपूजातपः शीललक्षणश्च चतुर्विधः । त्यागजश्चैव शारीरो धर्मो गृहनिषेविणां ॥८॥ सम्यग्दर्शनमूलोऽयं महद्धि कसुरश्रियं ।
ददाति यतिधर्मस्तु पुष्टो मोक्ष-सुखप्रदः ॥६॥ अबुद्धिपूर्वक क्रिया
तीर्थंकर के विहार के सम्बन्ध में यह प्रश्न किया जाता है
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