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तीर्थकर
[ २४५ कि भगवान भव्य जीवों के सन्ताप दूर करने के लिये जो विहार करते हैं, उस समय उनके पैरों को उठाकर डग भरते हुए गमन को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान के इस प्रकार की क्रिया का सद्भाव स्वीकार करना इच्छा के अस्तित्व का सन्देह उत्पन्न करता है।
समाधान :--मोहनीय कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से जिनेन्द्र भगवान की इच्छा का पर्णतया अभाव हो चका है, फिर भी उनके शरीर में जो क्रिया होती है, वह अबुद्धिपूर्वक स्वभाव से होती है । प्रवचनसार में कुन्दकुन्दस्वामी ने लिखा है कि :--
ठाण-णिसेज्ज-विहारा धम्मवदेसो हि णियदयो तेसि ।
अरहंताणं काले मायाचारोव्व इच्छीणं ॥४४॥
अरहंत भगवान के अरहंत अवस्था में खड़े होना, पद्मासन से बैठना, विहार करना तथा धर्मोपदेश देना ये कार्य स्वभाव से ही पाए जाते हैं, जिस प्रकार स्त्रियों में माया का परिणाम स्वभाव से होता है। जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव की दिव्यदेशना इच्छा के बिना होती है इसी प्रकार उनके शरीर में खड़े रहना, बैठना तथा विहार करना रूप कार्य भी इच्छा के बिना ही होते हैं ।
समवशरण में प्रभु का प्रासन
समवशरण में विहार के पश्चात् भगवान खड्गासन में रहते हैं या उनके पद्मासन हो जाता है ?
समाधान :--समवशरण में भगवान पद्मासन से विराजमान रहते हैं। हरिवंशपुराण में लिखा है कि महावीर भगवान के दर्शनार्थ चतुरङ्ग सेना समन्वित सम्राट श्रेणिक ने सिंहासन पर विराजमान वीर भगवान के दर्शन कर उनको प्रणाम किया था । श्लोक में 'सिंहासनोपविष्टं' शब्द का अर्थ है सिंहासन पर बैठे हुए । मूलश्लोक इस प्रकार है :
सिंहासनोपविष्टं तं सेनया चतुरङ्गया । श्रेणिकोपि च संप्राप्तः प्रणनाम जिनेश्वरम् ॥२--७१॥
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