________________
२४० ]
तीर्थकर त्रिलोकीनाथ, धर्मचक्र के स्वामी समवशरण लक्ष्मी से शोभायमान आदिपुरुष वृषभनाथ तीर्थकर ने अधर्म पर विजय का उद्योग प्रारम्भ किया।
विहार का परिणाम
भगवान के विहार के समय पुण्य सारथि के द्वारा प्रेरित अगणित देवों का समुदाय सर्व प्रकार की श्रेष्ठ व्यवस्था निमित्त तत्पर था। तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते समय होनहार तीर्थकर की यह विशुद्ध मनोकामना थी, कि मैं समस्त जगत् के जीवों में सच्चे धर्म की ज्योति जगाऊँ और मिथ्यात्वरूप अंधकार का क्षय करूँ, अतएव तीर्थकर प्रकृति की परिपक्व अवस्था में जीवों के पुण्य से आकर्षित हो उन दयाध्वजधारी जिनेन्द्र ने नाना देशों को विहार द्वारा पवित्र किया । धर्मशर्माभ्युदय में कहा है :--
अथ पुण्यः समाकृष्टो भव्यानां निःस्पृहः प्रभुः। देशे देशे तमश्छेत्तुं व्यचरद्भानुमाननिव ॥२१--१६७॥
भव्यात्मानों के पुण्य से आकर्षित किए गए उन निस्पृह प्रभु ने सूर्य के समान नाना देशों में अंधकार का क्षय करने के लिए विहार किया।
__ भगवान के विहार द्वारा जीवों के विविध सन्ताप अर्थात् आध्यात्मिक, अधिभौतिक एवं अधिदैविक सन्ताप दूर हो जाते थे । धर्मशर्माभ्युदय में लिखा है :
___ यत्रातिशयसम्पन्नो विजहार जिनेश्वरः।
तत्र रोग-ग्रहातंक-शोकशंकापि दुर्लभा ।।१७३॥
चौतीस अतिशयधारी जिनेन्द्रदेव का जहाँ-जहाँ विहार होता था, वहाँ-वहाँ रोग, अशुभ ग्रह, आतंक तथा शोक की शंका भी दुर्लभ थी अर्थात् उनका अभाव हो जाता था । परमागम में इस संसार को एक समुद्र कहा है, जो स्व-कृत-कर्मानुभावोत्थ है अर्थात् जीवों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org