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तीर्थकर
आत्म-प्रवाद पूर्व
इनमें आत्मतत्व का निरूपण करने वाला आत्मप्रवाद सातवाँ पूर्व है । इस पूर्व में ग्रात्मा का वर्णन करते हुए कहा है कि आत्मा का पर्यायवाची जीव शब्द है । जो जीता है, जीता था तथा पहले जीवित था, उसे जीव कहते हैं । आत्मा को शुभ अशुभ कार्य का कर्त्ता होने से कर्ता कहते हैं । ( सुहमसुहं करेदित्ति कत्ता ) । सत्यअसत्य, योग्य-अयोग्य बोलने से वक्ता, प्राणयुक्त होने से प्राणी, देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारकी के भेद से चार प्रकार के संसार मेंपुण्य-पाप का फल भोगने से भोक्ता कहते हैं । जीव को पुद्गल भी कहा है । "छविह संठाणं, बहुविह- देहेहि पूरदि गलदित्ति पोग्गलो" नाना प्रकार के शरीरों के द्वारा छह प्रकार के संस्थान को पूर्ण करता है, और गलाता है; इस कारण पुद्गल है । “सुखदुक्खं वेदेदित्तिवेदो" - सुख, दुःख का वेदन करता है, इसलिए वेद कहलाता है । " उपात्तदेहं व्याप्रतीति विष्णुः " - प्राप्त हुए शरीर को व्याप्त करता है, इससे विष्णु है । " स्वयमेव भूतवानिति स्वयंभूः " - स्वतः ही ग्रस्तित्ववान रहा है, इससे स्वयंभू है | शरीरयुक्त होने से शरीरी है । "मनुः ज्ञानं तत्र भव इति मानवः " -- मनु ज्ञान को कहते हैं । उसमें उत्पन्न हुआ है, इसलिए मानव है । ‘“सजण-सम्बन्ध-मित्त-वग्गादिसु संजदि त्ति सत्ता " - स्वजन सम्बन्धी मित्रादि वर्ग में प्रासक्त रहने से सक्ता है । “चउग्गइसंसारे जायदि जणयदित्ति जंतू " -- चतुर्गति रूप संसार में उत्पन्न होता है, इससे जंतु है । मान कषाय के कारण मानी, माया कषाय के कारण मायी है। मनोयोग, वचन योग, काय योगयुक्त होने से योगी, अत्यन्त संकुचित शरीर धारण करने से संकुट ( संकुडो ) है । सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करता है, इसलिए प्रसंकुट है । "क्षेत्रं स्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञः " स्व स्वरूप को तथा लोकालोक रूपक्षेत्र को जानता है, इससे क्षेत्रज्ञ है । "अट्टकम्मब्भंतरो त्ति अंतरप्पा" ——प्रष्टकर्मों के भीतर रहने से अन्तरात्मा कहलाता है । गोम्मटसार जीवकाण्ड में लिखा है- "व्यवहारेण प्रष्टकर्माभ्यन्तरवर्तिस्वभावत्वात्
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