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तीर्थंकर
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उनपर मिथ्या दोष लगाते हैं । कभी अल्प दोष होता है तो उसे बढ़ाकर प्रचार करते हैं । एक बार देखे दोष का प्रायश्चित्त लेने पर भी ये साधु को जीवन भर उस दोष से लिप्त मानते हैं । ऐसे लोग कहते हैं हम समालोचना मात्र करते हैं । हमारा भाव निन्दा का नहीं है । यथार्थ में यह आत्मवंचना है ।
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ऐसे सज्जन यह सोचें, कि क्या स्थितिकरण और उपगूहन अंगों का अर्थ यही मानना उचित है, कि पत्रों में साधुत्रों के विरुद्ध मन माने दूषण छापते जावें और यह कहते जावें कि उससे धर्म को कोई क्षति नहीं पहुँचती । जननी और जनक में अपनी संतति के प्रति जिस ममतामयी दृष्टि का सद्भाव रहता है, क्या ऐसी दृष्टि इन लोगों की रहती है, जो गुण पर पर्दा डालकर बुराई को ही बढ़ाकर साधुओं को लांछित करते हैं ? कभी कषायोदयवश किसी साधु में कोई दोष आ गया, तो बाल चिकित्सक के समान ऐसे साधुओं की कुशल धर्मात्मा द्वारा अंतरङ्ग चिकित्सा करानी चाहिए । ऐसा न कर पत्रोंमें निंदा छापनेसे वीतराग संस्कृतिके विपक्षी लोग अहिंसा धर्मका उपहास करते हैं । यह बात ये महानुभाव नहीं सोचते; यह दुःख की बात है ।
श्रेणिक का उदाहरण
साधु परमेष्ठी के महत्व को भूलने वाले ये पढ़े लिखे निंदक महानुभाव कृपा कर महामंडलेश्वर राजा श्रेणिक के उदाहरण को दृष्टि पथ में रखें तो उचित हो । मिथ्यात्व की अवस्था में श्रेणिक राजा ने' यशोधर मुनिराज के गले में मरा सर्प डाला था, इस दुष्ट कार्य के कारण श्रेणिक ने नरकायु का बन्ध किया था । वह बन्ध तीर्थंकर महावीर प्रभु के समवशरण में बहुत समय तक रहने पर भी छूट नहीं
१ कृतो मुनिबधानंदस्तीव्रो मिथ्यादृशा मया । येनायुष्कर्म दुर्मोचं बद्धं श्वाभ्रीं गतिं प्रति । महापुराण २-२४।।
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