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तीर्थकर
[ १८५ दुंदुभि नाद
(२) आकाश में देवों द्वारा दुंदुभि का मधुर शब्द चित्त को आनंदित करता था। महाकवि हरिचन्द्र धर्मशर्माभ्युदय में कहते
पवेयं लक्ष्मीः षवेदृशं निस्पृहत्वं, क्वेदं ज्ञानं क्वास्त्यनौद्धत्यमोदृक् । रेरे बूत द्राक्कुतीर्या इतीव ज्ञाने भर्तु दुन्दुभिव्योम्न्यवादीत् ॥२०--१६॥
अरे ! मिथ्यामत-वादियों ! यह तो बतायो इस प्रकार की समवशरण की अनुपम लक्ष्मी कहाँ और भगवान की श्रेष्ठ निस्पृहता कहाँ ! वे उस लक्ष्मी का स्पर्श भी नहीं करते । कहाँ इनका त्रिकालगोचर ज्ञान और कहाँ उनकी मद रहित वृत्ति ? दुंदुभि का शब्द यह कथन करता हुआ प्रतीत होता है।
चमर
(३) भगवान के ऊपर चौसट चामर देवों द्वारा ढारे जा रहे थे। वे चामर भगवान को प्रणाम करते हुए तथा उसके फल स्वरूप उन्नति को बताते थे। कल्याण मंदिर स्तोत्र में यही बात इन शब्दों में प्रगट की गई है :
स्वामिन् ! सुदूरमवनस्य समुत्पतंतो मन्ये वदंति शुचयः सुर-चामरौघाः। पेऽस्मै नति विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥
हे स्वामिन् ! हमें यह प्रतीत होता है कि दूर से आकर आप पर द्वारे गए पवित्र देवों कृत चामरों का समुदाय यह कहता है, कि जो भव्य समवशरण में विराजमान जिनेन्द्र देव को प्रणाम करते हैं, वे जीव पवित्र भाव यक्त होकर इन चामरों के समान ऊर्ध्वगति युक्त होते हैं अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
छत्र
(४) भगवान के छत्रत्रय अत्यंत रमणीय दिखते थे। उनके
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