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तीर्थकर
[ २०७ आया है' "अर्हन् इदं दयसे विश्वमभ्वम्" । मुद्राराक्षस नाटक में अर्हन्त के शासन को स्वीकार करो। ये मोह व्याधि के वैद्य हैं ऐसा उल्लेख आया है । मोहवाहि-वेज्जाणं अलिहंताणं सासणं पडिवज्जह ।" हनुमन्नाटक में लिखा है---"अर्हन् इत्यथ जैनशासनरता":जैनशासन के भक्त अपने आराध्य देव को अर्हन' कहते हैं ।
यह अरिहंत शब्द गुणवाचक है। जो भी व्यक्ति चार घातिया कर्मों का विनाश करता है व अरिहंत बन जाता है । अतः यह शब्द व्यक्तिगत न होकर गुणवाचक है । अरंहत शब्द भी गंभीर अर्थ पूर्ण है ।' अ का अर्थ है 'विष्णु' । 'अकारो विष्णुनाम स्यात्' । केवली भगवान केवलज्ञान के द्वारा सर्वत्र व्याप्त हैं अतः अ का अर्थ होगा केवली भगवान । 'र' का अर्थ है रोग । कोश में कहा है"रागः बले रवे” इत्यादि । 'ह' हनन करनेवाले का वाचक है । हर्षे च हनने हः स्यात् । 'त' शूरवीर का वाचक है। कहा भी है 'शरे चौरे च तः प्रोक्तः ।'
अरिहंत का वाच्यार्थ
धवल ग्रन्थ में 'अरिहंताणं' पर प्रकाश डालते हुए लिखा है "अरि हननात् अरिहंता । नरक-तिर्यक्कुमानुष्य-प्रेतावासगताशेषदुःख-प्राप्ति-निमित्तत्वात् अरिर्मोहः । तस्यारेहननादरिहन्ता । अर्थात् अरि के नाश करने से अरिहंत हैं। नरक, निर्यच, कुमानुष, प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने वाले समस्त दुःखों की प्राप्ति कानिमित्त कारण होने से मोह को अरि अर्थात् शत्रु कहा है । उस मोहशत्रु का नाश करने से अरिहंत हैं।
१ A Vedic Reader by Macdonell P. 63 २ मुद्राराक्षस अंक ४
३ शाकटायन ने व्याकरण में 'जिनोऽहन्' (३०३) सूत्र में अहंन को जिन का पर्यायवाची कहा है ।
४ चर्चासागर ।
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