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तीर्थंकर
करे । टीकाकार प्रभाचन्द्र आचार्य के शब्द इस प्रकार हैं “पज्जुवासं करेमि--एकाग्रेण हि विशुद्धेन मनसा चतुर्विंशत्युत्तर--शतत्रयाधुच्छवासैरष्टोत्तरशतादिवारान् पंचनमस्कारोच्चारणमर्हताँ पर्दूपासनकरणं तद्यावत् कालं करोमि पंचनमस्कार मंत्र का तीन उच्छ्वास में पाठ करने का मुनियों के प्राचार ग्रन्थों में प्रतिक्रमण प्रायश्चित्तादि के लिए उल्लेख पाया जाता है।
मुनिजीवन का मूल महामंत्र
मुनि जीवन के लिए जैसे २८ मूलगुण प्राणरूप हैं, इसी प्रकार यह मूलमंत्र भी अत्यन्त आवश्यक है । पैंतीस अक्षरात्मक यह मूलमन्त्र जैन उपासक के तथा श्रमण जीवन के लिये आवश्यक है।
भ्रांत धारणा
प्राचार्य भूतवलि, पुष्पदंत के द्वारा इसकी रचना हुई यह मानना "जीवट्ठाण सूत्र" के निबद्ध-अनिबद्ध भेदयुक्त मङ्गल चर्चा के आधार पर कहा जाता है ।
यह भी विचार तर्कसङ्गत नहीं है । जीवट्ठाण की चर्चा पर आदर्श प्रति के आधार से विचार किया जाय, तो विदित होगा कि वीरसेनाचार्य ने स्वयं णमोकारमंत्र को भूतबलि-पुष्पदन्ताचार्य रचित नहीं माना है । अलंकार चितामणि में अन्य ग्रन्थकार रचित मङ्गल को अनिबद्ध कहा है “परकृतमनिबद्ध" । जीवट्ठाण ग्रन्थ का विशेषण वाक्य है "इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमङ्गलं" पृ० ४१ । भ्रम से लोग 'निबद्धं मङ्गलं यस्मिन् तत्' इस प्रकार अर्थ विस्मरण कर पारिभाषिक निबद्ध मंगल मान बैठते हैं । जीवट्ठाण ग्रन्थ के आदि में मङ्गल है । स्वयं ग्रन्थ को ही निबद्धमङ्गल कहना असङ्गत बात होगी । अतः यह अर्थ उचित होगा, कि इस जीवट्ठाण ग्रन्थ में मङ्गल निबद्ध किया गया है । जब गौतम गणधर ने णमोकार मन्त्र को अपने द्वारा निबद्ध
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