________________
तीर्थकर
[ २२५ स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शन-नायकाम् । व्रत-शोलावलीं मुक्तेः कंठिकामिव निर्मलाम् ॥२४--१६५॥
भरत महाराज ने भगवान की आराधना कर सम्यदर्शन युक्त मुख्य मणि सहित व्रत और शीलों से समलंकृत निर्मल माला अपने कंठ में धारण की, जो मुक्ति-श्री के निर्मल कण्ठहार के समान लगती थी; अर्थात् भरत महाराज ने द्वादश व्रतों द्वारा अपना जीवन अलंकृत किया था। इस कारण वे सुसंस्कृत मणि के समान दैदीप्यमान होते थे । भगवान की दिव्यवाणी सुनकर बारहवें कोठे में पशुओंपक्षियों के मध्य में स्थित मयूरों को बड़ा हर्ष हुआ, क्योंकि उनको जिनेन्द्र की मधुर वाणी अत्यन्त प्रिय मेघ की ध्वनि सदृश सुनाई पड़ी थी। महाकवि कहते हैं :--
दिव्यध्वनिमनुश्रुत्य जलद-स्तनितोपमम् ।
अशोक-विटपारूढाः सस्वन-दिव्यबहिणः ॥२४--१६६॥
मेघ की गर्जना सदृश भगवान की दिव्यध्वनि को सुनकर अशोकवृक्ष की शाखाओं पर स्थित दिव्य-मयूर भी अानन्द से शब्द करने लगे थे।
वृषभसेन गणधर
भगवान की दिव्य देशना से भरत महाराज के छोटे भाई पुरिमतालपुर के स्वामी महाराज वृषभसेन की आत्मा अत्यधिक प्रभावित हुई । वृषभ पिता की कल्याणमयी आज्ञा को ही मानो शिरोधार्य करते हुए इन वृषभपुत्र ने मोक्ष के साक्षात् मार्ग रूप महाव्रतों को अङ्गीकारकर मुनिपदवी प्राप्त की और सप्तऋद्धि से शोभायमान हो प्रथम गणधर की प्रतिष्ठा की। उनके विषय में महापुराणकार के शब्द ध्यान देने योग्य हैं :--
योऽसौ पुरिमतालेशो भरतस्यानुजः कृती। प्राज्ञः शूरः शुचि/रो धौरेयो मानशालिनाम् ।।१७१॥ श्रीमान् वृषभसेनाख्यः प्रज्ञापारमितो वशी। स सम्बुध्य गुरोः पार्वे दीक्षित्वाऽभूद गणाधिपः ॥१७२--पर्व २४॥
१५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org