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तीर्थंकर
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देवाधिदेव की प्रत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा की और उनको प्रमणा किया । उनका मंगल स्तवन करते हुए भरतराज ने कहा :--
त्वं शम्भुः शम्भवः शंयुः शंवदः शंकरो हरः । हरिर्मोहासुरारिश्च तमोरिर्भव्यभास्करः ॥२४--३६॥
आप ही शंभु हैं, शंभव हैं, शंयु अर्थात् सुखी हैं, शंवद हैं अर्थात् सुख या शाँति का उपदेश देने वाले हैं, शंकर हैं अर्थात् शाँति के करने वाले हैं, हर हैं, मोहरूपी असुर के शत्रु हैं, प्रज्ञानरूप अंधकार के अरि हैं और भव्य जीवों के लिए उत्तम सूर्य हैं ।
भरतेश्वर जिनेन्द्र के गुणस्तवन के सिवाय नामकीर्तन को भी आत्म निर्मलता का कारण मानते हुए कहते प्राचार्य हैं तदास्तां गुणस्तोत्रं नाममात्रच कीर्तितम् ।
पुनाति नस्ततो देव त्वन्नामोद्देशतः श्रिताः ॥ २४–६८ ॥
हे देव, आपके गुणों का स्तोत्र करना तो दूर रहा, आपका लिया हुआ नाम ही हम लोगों को पवित्र कर देता है; प्रतएव हम आपका नाम लेकर ही आपके शरण को प्राप्त होते हैं ।
चक्रवर्ती द्वारा प्रार्थना
वृषभात्मज भरतेश्वर जगत्पिता वृषभजिनेश्वर की स्तुति के उपरान्त श्रीमंडप में जाकर सभा में अपने योग्य स्थान पर बैठे; पश्चात् विनयपूर्वक भरतराज ने जिनराज से प्रार्थना की :--
भगवन् बोद्ध मिच्छामि कीदृशस्तत्वविस्तरः ।
मार्गो मार्गफल चापि कीदृग् तत्वविदांवर ॥२४--७६॥
भगवन् ! तत्वों का स्पष्ट स्वरूप किस प्रकार है ? मार्ग तथा मार्गफल कैसा है ? हे तत्वज्ञों में श्रेष्ठ देव ! मैं आपसे यह सब सुनना चाहता हूँ ।
भाग्यशाली भक्तशिरोमणि भरतराज के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने समस्त सप्त तत्वों का, रत्नत्रय मार्ग तथा उसके फल
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