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तीर्थंकर
[ २१३ आगम ग्रन्थों में लिखा है, तब जीवट्ठाण में कथित विवेचन का अविरोधी अर्थ करना विज्ञ व्यक्ति का कर्तव्य है। पक्ष का मोह हितप्रद नहीं
अरहंत की विशेषता
पूज्यता की दृष्टि से अष्टकर्मों का क्षय करने वाले सिद्ध भगवान को प्रणाम रूप “णमो सिद्धाणं" पद पहले रखा जाना चाहिए था, किन्तु अपराजित मूलमंत्र में णमो अरहंताणं को प्रथम स्थान पर रखा है। इसका विशेष रहस्य यह है । सम्यग्ज्ञान के द्वारा इष्ट पदार्थ की उपलब्धि होती है । उस ज्ञान का साधन शास्त्र है । उस शास्त्र के मूलकर्ता अरहंत भगवान हैं । इस कारण जीव को मोक्ष प्राप्त करने वाली जिनवाणी के जनक होने से जिनेन्द्र तीर्थकर सर्वप्रथम वंदनीय माने गए हैं, क्योंकि उपकार को न भूलना सत्पुरुषों का मुख्य कर्तव्य है। उपकार करनेवाले प्रभु का स्मरण न करने से अकृतज्ञता का दोष लगता है । नीच माने जाने वाले पशु तक अपने उपकारी के उपकार को स्मरण रखते हैं, तब विचारवान मनुष्य को तो कृतज्ञता की मूर्ति बनना चाहिये। उपकृत व्यक्ति की दृष्टि में उपकर्ता का सदा अन्य की अपेक्षा उच्च स्थान माना गया है।
कृतज्ञता
हरिवंशपुराण में कथा आई है। चारुदत्त ने मरते हुए बकरे के कान में पंच नमस्कार मन्त्र दिया था। उससे वह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । वह देव कुंभकंटक नामक द्वीप के कर्कोटक पर्वत पर जिन चैत्यालय में विद्यमान मुनिराज के चरणों के समीप स्थित चारुदत्त के पास पहुँचा । उस देवने पहले चारुदत्त को प्रणाम किया था। मुनिराज की वंदना बाद में की थी। उस देव ने कहा था "जिनधर्मोपदेशक: चारुदत्तो साक्षात् गरु :"--जिनधर्म का उपदेश देकर
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