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तीर्थकर
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मैं उन जिनेन्द्र भगवान को प्रानन्द की प्राप्ति के हेतु नमस्कार करता हूँ जिनके पद पंकज ( चरणकमल) की रज ( भक्तिरूपी रज) द्वारा अपने चित्त को निर्मार्जित करने पर अंतःकरण रूपी दर्पण में तीनों लोकों को प्रतिबिम्बित होते हुए जीव देखते हैं !
जिन - भक्ति
वीतराग भगवान की भक्ति का यह अद्भुत चमत्कार है । वह इस काल में मुनियों का भी प्राण है । पाप-पंक में लिप्त गृहस्थों के हितार्थ अमृतौषध सदृश है । उस जिनेन्द्र भक्ति को दूषित समझने वाला गृहस्थ अपने पैरों पर कुठाराघात करता है । अध्यात्मवाद के नाम पर वह गृहस्थ विषपान करता हुआ प्रतीत होता है । शिशुवर्ग का तुतलानेवाला बालक शस्त्राभ्यास का तिरस्कार द्योतक शब्द उच्चारण करता हुआ जैसे उपहास का पात्र होता है, ऐसी ही स्थिति उस भक्ति विरोधी गृहस्थ की होती है । स्याद्वाद के प्रकाश में वह अध्यात्मवाद मिथ्याभाव की संतति सिद्ध होता है । अरहंत देव की भक्ति जीवन के लिये परम-रसायन है । प्राचार्य कहते हैं धरहंतरण मोक्कारं भावेण य यो करेदि पयदमदी ।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि श्रचिरेण कालेा ॥ ५०६ ॥ मूलाचार
नव लब्धियाँ
जो पुरुष भावपूर्वक सावधानी के साथ अरहंत भगवान को प्रणाम करता है, वह शीघ्र ही सर्वदुःखों से छूट जाता है ।
गोम्मटसार में लिखा है
केवलणाण-दिवायर-किरण-कलावप्पणसिय-ण्णाणो ।
णवे केवल लधुग्गम- सुजणय परमप्पप-ववएसो ||६३
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वह केवलज्ञान रूपी दिवाकर अर्थात् सूर्य की किरण - कलपा के द्वारा प्रज्ञान का नाश करके तथा नव केवललब्धियों की उत्पत्ति होने पर यथार्थ में परमात्मा कहलाता है ।
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