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तीर्थकर भ्रम-निवारण
इन अरहंत को नमस्कार करने से जीव सम्पूर्ण दुःखों से छुट जाता है । कोई-कोई गृहस्थ अव्रती होते हुए भी यह सोचते हैं कि अरहंत का स्मरण करने से मन में राग भाव उत्पन्न होते हैं । राग की उत्पत्ति द्वारा संसार का भ्रमण होता है; अतएव सच्चे आत्महित के हेतु हमें णमोकार मन्त्र में प्रतिपादित भक्ति से दूर रहना चाहिए । केवल आत्मदेव का ही शरण ग्रहण करना चाहिये ।
इस प्रकार का कथन स्वयं पाप पंक से लिप्त गृहस्थ के मुख में ऐसा दिखता है, जैसे मल द्वारा मलिन शरीर वाले व्यक्ति का मलनिवारक साबुन आदि पदार्थों के उपयोग का निषेध करना है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि स्वच्छ शरीर पर शरीर शोधक द्रव्य का लेप अनावश्यक है । अनुजित भी है, किन्तु अस्वच्छ शरीर वाले के लिए उसका उपयोग आवश्यक है । शरीर पर मलिनता है
और क्षार द्रव्य रूपी सामग्री को लगाना और मलिनता को बढ़ाना ठीक नही है । ऐसा तर्क सारशून्य है क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभद से बाधित है । साबुन के प्रयोग द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है, कि वह स्वयं बाहरी पदार्थ होते हुए भी शरीर पर लगाए जाने पर मलिनता को दूर कर देता है, इसी प्रकार वीतराग की भक्ति रागात्मक होती हुई ,प्रात्मा की प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान रूपी भीषण मलिनता को दूर करके क्रमशः सच्ची भक्ति के द्वारा जीव का कल्याण करती हुई भक्त को भगवान बना देती है।
इस सम्बन्ध में धर्मशर्माभ्युदय काव्य की यह उत्प्रेक्षा बड़ी मार्मिक है :-- निर्माजिते यत्पद-पंकजानां रजोभिरंतः प्रतिबिंबितानि ।
जनाः स्वचेतो मुकुरे जगंति तान्नौमि मुदे जिनन्द्रान् ॥सर्ग॥१॥
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