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तीर्थकर
[ २०५ सद्भाव ही बताता है कि उनसे युक्त प्रात्मा जनसाधारण के समान है। उसे शुद्ध परमात्मा कहना जुगनू को या दीपक को सूर्य कहकर उसकी स्तुति करना है।
जिनेन्द्र तीर्थंकर की मूर्ति में एक विशेषता दृश्यमान होती है कि वे प्रभु ब्रह्मदर्शन की मुद्रा में हैं । सन् १६५६ के अक्टूबर मास में जापान में हमसे एक व्यक्ति ने पूछा था--बुद्ध की मूर्ति भी शांत है, महावीर की मूर्ति भी शांत है। उनमें अंतर क्या है ? ।
हमने अपने पास के महावीर भगवान के चित्र को दिखाकर बताया था, कि महावीर भगवान भीतर देखते हैं, बुद्धदेव बाहर देखते हैं । बुद्धदेव की उपदेश मुद्रा या अभय मुद्रा इसके प्रमाण हैं कि बहिर्जगत् की अोर बुद्ध की दृष्टि है । अन्य कौतुक, क्रीड़ा आदि मुद्रा युक्त भगवान की मूर्ति का योग-मुद्रा युक्त ध्यानमयी प्रतिमा के साथ तुलना की आवश्यकता नहीं है। उनका अन्तर अत्यन्त स्पष्ट है । जिनेन्द्रमति की वीतरागता, पवित्रता, शांति तथा आत्मसंयम के प्रकाश से प्रदीप्त होती है । उनकी मुद्रा प्रशांत, प्राध्यात्मिक स्वास्थ्य समलंकृत कृतकृत्य योगी की है। इस प्रकार उनका अन्तर स्पष्ट है।
स्तुति का प्रयोजन ?
____ इस प्रसङ्ग में सहज ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि भगवान ऋषभदेव आदि तीर्थंकर केवलज्ञान उत्पन्न होने पर वीतराग हो चुके । वे न स्तुति से प्रसन्न होते और न निंदा से उनको क्रोध ही उत्पन्न होता है । ऐसी स्थिति में उनकी स्तुति को क्यों जैन परम्परा में स्थान दिया गया है ?
इस प्रश्न के समाधान में आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि आपके स्तोत्र, स्तवन के द्वारा मन से मलिन भाव दूर होते हैं । इस आत्म निर्मलता की प्राप्ति के लिए जिनेन्द्र की स्तुति, आराधना की
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