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तीर्थकर विषय में प्राचार्य मानतुंग कहते हैं :--
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त । मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजाल-विवृद्ध शोभम् । प्रख्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ भक्तामरस्तोत्र ।
हे भगवन ! चन्द्रमा के समान शोभायमान, सूर्य किरणों के संताप को दूर करने वाले आपके मस्तक के ऊपर विराजमान मोतियों के पुंज से जिनकी शोभा वृद्धि को प्राप्त हो रही है, ऐसे छत्रत्रय आपके तीन लोक के परमेश्वरपने को प्रगट करते हुए शोभायमान होते हैं ।
दिव्य ध्वनि
(५) दिव्यध्वनि के विषय में ये शब्द बड़े मार्मिक है :-- स्थाने गभीर-हृदयोदधिसंभवाया। पीयूषतां तव गिरः समुदीरयंति । पीत्वा यतः परमसंमद-संगभाजो।
भव्याः व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ॥२१॥ कल्याणमंदिर स्तोत्र
हे जिनेन्द्र देव ! गंभीर हृदय रूप सिंधु में उत्पन्न हुई आपकी दिव्यवाणी को जगत अमृत नाम से पुकारता है । यह कथन पूर्ण योग्य है, क्योंकि भव्य जीव आपकी वाणी का कर्णेन्द्रिय के द्वारा रसपान करके अत्यंत आनंद युक्त होकर अजर-अमर पद को प्राप्त करते हैं।
अशोक तरु
(६) अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान आदिनाथ प्रभु की मनोज्ञ छबि का मानतुंगाचार्य इस प्रकार वर्णन करते हैं :
उच्चरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखमाभातिरुपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमोवितानम् । बिम्बं रवेरिव पयोषर-पार्वति ॥२८॥
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