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तीर्थकर सर्वविद्याओं के ईश्वर जिनेन्द्र भगवान से सर्व प्रकार से आश्चर्यप्रद सृष्टि रूप तथा कर्णों के लिए सुधावृष्टि सदृश दिव्यध्वनि उत्पन्न हुई।
दिव्यध्वनि का काल
गोम्मटसार जीवकांड की संस्कृत टीका में लिखा है; कि तीर्थंकर की दिव्यध्वनि प्रभात, मध्यान्ह, सायंकाल तथा मध्यरात्रि के समय चार-चार बार छह-छह घटिका कालपर्यंत अर्थात् दो घंटा, चौबीस मिनिट तक प्रतिदिन नियम से खिरती है। इसके सिवाय गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र सदृश विशेष पुण्यशाली व्यक्ति के आगमन होने पर उनके प्रश्नों के उत्तर के लिए भी दिव्यध्वनि खिरती है । इसका कारण यह है कि उन विशिष्ट पुण्याधिकारियों के संदेह दूर होने पर धर्मभावना बढ़ेगी और उससे मोक्षमार्ग की देशना का प्रचार होगा, जो धर्म तीर्थंकर की तत्व प्रतिपादना की पूर्ति स्वरूप होगी । जीवकाण्ड की टीका में ये शब्द आए हैं---"घातिकर्म-क्षयानंतर-केवलज्ञानसहोत्पन्नतीर्थकरत्वपुण्यातिशय-विजृ भितमहिम्नः तीर्थकरस्य पूर्वन्ह-मध्यान्हापरान्हार्धरात्रिषु षट्-षट् घटिकाकालपर्यन्त द्वादशगणसभामध्ये स्वभावतो दिव्यध्वनि-रुद्रच्छति । अन्यकालेपि गणधर शक्र-चक्रधरप्रश्नानंतरं चोद्भवति । एवं समुद्भूतो दिव्यध्वनिः समस्तासन्नश्रोतृ-गणानुद्दिश्य उत्तमक्षमादिलक्षणं रत्नत्रयात्मकं वा धर्म कथयति" (पृष्ठ ७६१) । जयधवला टीका में लिखा है कि यह दिव्यध्वनि प्रातः मध्यान्ह तथा सायंकाल रूप तीन संध्याओं में छह-छह घड़ी पर्यन्त खिरती है-“तिसंज्झू-विसय-छघडियासु णिरंतरं पयट्टमाणिय" (पृष्ठ १२६, भाग १)। तिलोयपण्णत्ति में भी तीन संस्थाओं में कुल मिलाकर नवमुहूर्त पर्यन्त दिव्यध्वनि खिरने का उल्लेख है।
पगदीए अक्खलिपो संझत्तिदयम्मि णवमहत्ताणि । णिस्सरदि णिस्वमाणो दिवझणी जाव जोयणयं ॥४--१०३।।
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