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तीर्थकर
अष्ट प्रातिहार्य तथा अनन्त चतुष्टय मिलकर तीर्थंकर अरहत क छियालीस गुण माने गए हैं । घातिया चतुष्टय के नष्ट होने पर भगवान यथार्थ में निर्दोष पदवी के अधिकारी बनते हैं। केवलज्ञान उत्पन्न होने के पूर्व प्रभु अगणित गुणों के भण्डार रहते हुए भी पूर्ण निर्दोष नहीं कहे जा सकते । जनसाधारण में यह बात प्रचलित भी है कि भगवान के सिवाय दूसरा कोई पूर्ण निर्दोष नहीं हो सकता । जगत् में किसी को सदोष, किसी को निर्दोष कहा जाता है, यह स्थूल रूप से साक्षेप कथन है । वास्तव में दोषों के गुरु मोहनीय के रहते हुए कैसे निर्दोषपना कहा जा सकता है ? यदि शांत और वीतराग भाव से तत्व का विचार किया जाय, तो जिनेन्द्रदेव ही निर्दोष कहे जावेंगे । विषयों के या इन्द्रियों के दास, कामवसना के अधीन रहने वाले परिग्रहासक्त निर्दोष नहीं हो सकते । भक्त-जन उन विभूति सम्पन्न परिग्रही आत्माओं की कितनी भी स्तुति करें, उनमें गुण नहीं प्रा सकते । एक कवि ने कहा है :
बड़े न हजे गुनन बिनु बिरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सों कनक गहनो गढघो न जाय ॥ गुणों के अभाव में स्तुति प्राप्त करने से कोई वास्तव में बड़ा नहीं बन सकता है । धतूरे को कनक कहते हैं । सुवर्ण का पर्यायवाची शब्द यद्यपि धतूरे के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु उसमें सुवर्ण का गुण नहीं है, अतः उससे भूषण नहीं बनाए जाते । इस प्रकाश में सच्चे देव आदि का निर्णय किया जा सकता है । अरहंत भगवान में इन १८ दोषों का अभाव होता है :
जन्म जरा तिरखा छुधा विस्मय प्रारत खेद । रोक शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद ॥
राग द्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टदाश दोय ।..
नहिं होते परहंत के सो छबि लायक मोख ॥ जिनेन्द्र भगवान में दोषों का सर्वथा अभाव आश्चर्यप्रद लगता है। विविध सरागी धर्मों का तथा उनके आश्रयरूप आराध्यों
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