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तीर्थकर श्रोत मण्डली को गणधरदेव द्वारा दिव्यध्वनि के समय के पश्चात् उपदेश प्राप्त होता है। जब दिव्यध्वनि खिरती है, तब मनुष्यों के सिवाय संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच, देवादि भी अपनी अपनी भाषाओं में अर्थ को समझते हैं, इससे वीरसेनस्वामी ने उस दिव्यवाणी को 'सव्वभाषा-सरुवा'--'सर्व-भाषास्वरूपा' भी कहा है । उस दिव्यवाणी की यह अलौकिकता है कि गणधरदेव सदृश महान ज्ञान के सिन्धु भी अपने लिए अमूल्य निधि प्राप्त करते हैं तथा महान मंदमति प्राणी सर्प, गाय, व्याघ्र, कपोत, हंसादि पशु भी अपने अपने योग्य सामग्री प्राप्त करते हैं।
तात्पर्य
उपरोक्त समस्त कथन पर गम्भीर विचार तथा समन्वयात्मक दृष्टि डालने पर प्रतीत होता है, कि जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि अलौकिक है; अनुपम है और आश्चर्यप्रद है । उसके समान विश्व में कोई अन्य वाणी नहीं है । वाणी की लोकोत्तरता में कारण तीर्थंकर भगवान का त्रिभुवन वंदित अनन्त सामर्थ्य समलंकृत व्यक्तित्व है । श्रेष्ठ सामर्थ्यधारी गणधरदेव, महान महिमाशाली सुरेन्द्र आदि भी प्रभु की अपूर्व शक्ति से प्रभावित होते हैं । योग के द्वारा जो चमत्कारप्रद फल दिखाई पड़ता है, वह स्थूल दृष्टि वालों की समझ में में नहीं आता, अतएव वे विस्मय सागरमें डूबे ही रहते हैं।
दिव्यध्वनि तीर्थंकर प्रकृति के विपाक की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है, कारण उक्त कर्म का बंध करते समय केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में यही भावना का बीज बोया गया था, कि इस बीज से ऐसा वृक्ष बने, जो समस्त प्रोणियों को सच्ची शांति तथा मुक्ति का मङ्गल संदेश प्रदान कर सके । मनुष्य-पर्यायरूपी भूमि में बोया गया यह तीर्थंकर प्रकृतिरूप बीज अन्य साधन-सामग्री पाकर केवली की अवस्था में अपना वैभव, तथा परिपूर्ण विकास दिखाता हुआ त्रैलोक्य के समस्त जीवों को विस्मय में डालता है ।
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