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तीर्थकर
[ १९७ ज्झुणी) ? सव्वभासासरुवा, अक्खराणक्खरप्पिया, अणंतत्थ-गब्भबीजपद-घडिया-सरीरा" (पृ० १२६, भाग १) वह दिव्यध्वनि किस प्रकार की है ? वह सर्वभाषा स्वरूप है । अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक है । अनन्त अर्थ हैं गर्भ में जिसके ऐसे बीज पदों से निर्मित शरीर वाली है अर्थात् उसमें बीजपदों का समुदाय है ।।
चौसठ ऋद्धियों में बीज बुद्धि नाम की ऋद्धि का कथन आता है । उसका स्वरूप राजवार्तिक में इस प्रकार कहा है--"जैहे हल के द्वारा सम्यक प्रकार तैयार की गई उपजाऊ भमि में. योग्य काल में बोया गया एक भी बीज बहुत बीजों को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार नोइंद्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के प्रकर्ष से एक बीज पद के ज्ञान द्वारा अनेक पदार्थों को जानने की बुद्धि को बीज बुद्धि कहते हैं"--"सुकुष्ट-सुमथिते क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथाऽनेकबीजकोटिप्रदं भवति तथा नोइंद्रियावरण-श्रुतावरण-वीर्यान्तराय-क्षयोपशमप्रकर्षे सति एक-बीजपदग्रहणादनेक-पदार्थ-प्रतिपत्तिर्बीज बुद्धिः” (पृ० १४३, अध्याय ३, सत्र ३६) इस सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि जिनेन्द्रदेव की बीज पद युक्त वाणी को गणधरदेव बीज-बुद्धि ऋद्धिधारी होने से अवधारण करके द्वादशांग रूप रचना करते हैं ।
इस प्रसङ्ग में यह बात विचार योग्य है कि प्रारम्भ में भगवान की वाणी को झेलकर गणधर देव द्वादशांग की रचना करते हैं, अतः उस वाणी में बीच पदों का समावेश आवश्यक है, जिनके आश्रय से चार ज्ञानधारी महर्षि गणधर देव अङ्ग-पूर्वो की रचना करने में समर्थ होते हैं । वीर भगवान की दिव्यध्वनि को सुनकर गौतमस्वामी ने “बारहंगाणं चोद्दसपुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहुत्तेण कमेण रयणा कदा" (धवला डीका भाग १, पृ० ६५)द्वादशांग तथा चौदह पूर्व रूप ग्रथों की एक मुहूर्त में क्रम से रचना की । इसके पश्चात् भी तो महावीर भगवान की दिव्यध्वनि खिरती रही है।
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