________________
तीर्थंकर
से तथा सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने से सत्य वचनयोग का सद्भाव सिद्ध होता है । इस प्रकार केवली के सत्य और अनुभय वचन योग सिद्ध होते हैं। इस कथन से ज्ञात होता है कि श्रोताओं के समीप पहुंचने के पूर्व वाणी अनक्षरात्मक रहती है, पश्चात् भिन्न-भिन्न श्रोताओं का आश्रय पाकर वह दिव्यध्वनि अक्षररूपता को धारण करती है।
स्वामी समन्तभद्र ने जिनेन्द्र की वाणी को सर्वभाषा स्वभाव वाली कहा है। यथा :--
तव वागमतं श्रीमत्सर्वभाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यद्वप्राणिमाध्यापि संसदि ॥
श्री युक्त तथा सर्व-भाषा स्वभाववाली आपकी अमृतवाणी समवशरण में व्याप्त होकर, जिस प्रकार अमृत प्राणियों को प्रानन्द प्रदान करता है, उस प्रकार जीवों को आनन्दित करती है ।
महापुराणकार का मत
महापुराणकार दिव्यध्वनि को अक्षरात्मक कहते हुए इस प्रकार प्रतिपादिन करते हैं :--
देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एव च वर्णसमूहान्नेव विनार्थगति जगति स्यात् ॥२३--७३॥
कोई लोग कहते हैं कि दिव्यध्वनि देवकृत है, यह कथन असम्यक् है, क्योंकि ऐसा मनने से जिनेन्द्र भगवान के गुण का व्याघात होता है। वह दिव्यध्वनि अक्षरात्मक ही है, (यहाँ 'ही' बाचक 'एव' शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है ) कारण अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का बोध नहीं होता है ।
वीरसेन स्वामी की दृष्टि
जयधवला टीका में जिनसेन स्वामी के गुरु श्री वीर सेनाचार्य ने दिव्यध्वनि के विषय में ये शब्द कहे हैं--"केरिसा सा (दिव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org