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तीर्थंकर रसायन लिखा है--"चेतः कर्णरसायनं"। उन्होंने यह भी लिखा
जिनभाषाऽधर-स्पंदमंतरेण विज भिता। तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टि-मोह-मनीशत् ॥२--११३॥
प्रोष्ठ कंपन के बिना उत्पन्न हुई जिनेन्द्र की भाषा ने तियंच, देव तथा मनुष्यों का दृष्टि सम्बन्धी मोह दूर किया था। पूज्यपाद स्वामी उस ध्वनि के विषय में यह कथन करते हैं :
ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोत्रहृदयहारिगंभीरः।
ससलिलजलधरपटलध्वनितमिव प्रविततान्त-राशावलयं ॥२१॥
जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि श्रोत्र अर्थात् कर्ण तथा हृदय को सुखदाई तथा गंभीर होती है । वह सलिल परिपूर्ण मेघपटल की ध्वनि के समान दिगंतर में व्याप्त होती हुई एक योजन पर्यंत पहुँचती है।
महापुराणकार जिनसेनस्वामी का कथन है :एकतयोपि यथैव जलौघश्चित्ररसो भवति ब्रुमभेदात् ।
पात्रविशेषवशाच्च तथायं सर्वविदो ध्वनिराप बहुत्वं ॥७१--२३॥
जिस प्रकार एक प्रकार का पानी का प्रवाह वृक्षों के भेद से अनेक रस रूप परिणित होता है, उसी प्रकार यह सर्वज्ञ देव की दिव्यध्वनि एक रूप होते हुए पात्रों के भेद से विविध रूपता को प्राप्त होती है।
___ कर्नाटक भाषा के जैनव्याकरण में यह उपयोगी श्लोक आया है :
गंभीर मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितं । कंठोष्ठादिवचो-निमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतं ॥ स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेष-भाषात्मकं । दूरासन्नसमं शमं निरुपमं जनं वचः पातु नः ॥
गम्भीर, मधुर, अत्यन्त मनोहर, निष्कलंक, कल्याणकारी, कंठोष्ठ, तालु आदि वचन उत्पत्ति के निमित्त कारणों से रहित,
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