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तीर्थंकर देश तथा प्रांत की बहुसंख्यक जनता के कल्याणार्थ अपनी पूर्व प्रयुक्त भाषा में परिवर्तन न करेंगे यह बात अन्त करण को अनुकूल प्रतीत नहीं होती । उदाहरणार्थ भगवान जब विपुलाचल पर विराजमान थे तब मगध की मागधी भाषा में विशेष जनकल्याण को लक्ष्य कर उपदेश देना उचित दथा आवश्यक प्रतीत होता है, किन्तु महीशूर (मैसूर) प्रांत में भव्य जीवों के पुण्य से पहुंचने वाले वे परम पिता जिनेन्द्रदेव यदि कनड़ी भाषा का आश्रय लेकर तत्व निरूपण करें तो अधिक उचित बात हो। जिनेन्द्र देव की संपूर्ण बातें उचित और निर्दोष ही होंगी । ऐसी स्थिति में सर्वत्र सर्वदा मागधी नामकी प्रांत विशेष की भाषा में प्रभु का उपदेश होता है, यह मान्यता सुदृढ़ तर्क पर आश्रित नहीं दिखती।
लोकोत्तर वाणी
__महान तपश्चर्या, विशुद्ध सम्यग्दर्शन, परमयथाख्यात चारित्र, केवलज्ञान आदि श्रेष्ठ सामग्री का सन्निधान प्राप्त कर समुद्भत होने वाली संपूर्ण जीवों को शाश्वतिक शांतिदायिनी भगवद् वाणी की सामान्य संसारी प्राणियों की भाषा से संतुलना कर दोनों को समान समझने का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता । वह वाणी लोकोत्तर है। लोकोत्तम योगिराज जिनेन्द्र की है । संसारी जन योगिराज की विद्या, विभूति और सामर्थ्य का लेश भी नहीं प्राप्त कर सकते । रेत का एक कण और पर्वत कैसे समान रूप से विशाल कहे जा सकते हैं । महान तार्किक विद्वान समंतभद्र जिनेन्द्र की प्रवृत्तियों के गंभीर चिंतन के पश्चात् इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि "जिनेन्द्र के कार्य अचित्य हैं -" "धीर ! तावकमचित्यमीहितम्” (७४ स्वयंभू स्तोत्र) । उन्होंने जिनेन्द्र के विषय में लिखा है :
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः। तेननाथ परमासि देवता श्रेयसे जिनवृष प्रसीद नः ॥७५॥
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