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तीर्थंकर
[ १८६ ऋषभादिक तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोक वृक्ष बारह से गुणित अपने अपने जिन भगवान की ऊँचाई से युक्त शोभायमान होते हैं (गाथा ४-६१६) महापुराण में अशोकवृक्ष के विषय में लिखा है :
मरकतहरितः पत्र मणिमयकुसुमैश्चित्रः।
मरदुपविषुताः शाखाश्चिरमघृत महाशोकः ॥२३-३६॥
वह महाशोक वृक्ष मरकतमणि के बने हुए हरे हरे पत्ते और रत्नमय चित्र-विचित्र फूलों से अलंकृत था तथा मन्द-मन्द वायु से हिलती हुई शाखाओं को धारण कर रहा था। उस अशोक वृक्ष की जड़ वज्र की बनी हुई थी, जिसका मूलभाग रत्नों से दैदीप्यमान था । ऋषभनाथ भगवान का अशोक वृक्ष एक योजन विस्तार युक्त शाखाओं को फैलाता हुआ शोक रूपी अन्धकार को नष्ट करता था। महान आत्माओं के आश्रय से तुच्छ पदार्थों की भी महान प्रतिष्ठा होती है, इस विषय में यह अशोक वृक्ष सुन्दर उदाहरण है ।
दिव्यध्वनि की विशेषता
भगवान के अष्ट प्रातिहार्यों में उनकी दिव्यध्वनि का मोक्षमार्ग की दृष्टि से अन्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । तिलोयपण्णति में कहा है :
छद्द व्व-णवयपत्थे पंचट्ठीकाय-सत्ततच्चाणि । णाणाविह-हे दूहि दिव्वझुणी भणइ भव्वाणं ॥४-६०५॥
यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नव पदार्थ, पंच अस्तिकाय तथा सप्त तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है । यह दिव्यध्वनि अत्यंत मधुर, गंभीर तथा मृदु लगती है । यह एक योजन प्रमाण समवशरण में रहनेवाले भव्य जीवों को प्रतिबोध प्रदान करती है। यह जिनेन्द्रध्वनि कंठ, तालु आदि शब्दों को उत्पन्न करने वाले अंगों की सहायता बिना उत्पन्न होती है। इसे किसी भी भाषा के नाम से न कहकर ध्वनि मात्र शब्द द्वारा कहा गया है।
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