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तीर्थंकर के छह माह पूर्व से इन्द्र सदृश प्रतापी समर्थ, वैभव के अधीश्वर भी प्रभु की सेवार्थ आते हैं । असंख्य देवी देवता सेवा करते हैं, भक्ति करते हैं; इसका कारण तीव्रतम पुण्योदय है । जैसे चुंबक के द्वारा लोहा आकर्षित होता है, इसी प्रकार इस तीर्थंकर प्रकृति के उदय युक्त आत्मा की आकर्षण शक्ति के कारण श्रेष्ठ निधियाँ तथा विभूतियाँ स्वयं समीप अाती हैं और अपना मधुरतम मोहन प्रदर्शन करती हैं । अतः तत्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु की लोकोत्तरता के विषय में प्रगाढ़ श्रद्धा द्वारा अपने सम्यक्त्व को उज्ज्वल रखता है ।
अतिशय
तीर्थंकर भक्ति में भगवान के चौतीस अतिशय कहे गए हैं । उनके लिए 'चउतीस-अतिसय-विसेस-संजुत्ताणं' पद का प्रयोग आया है । अतएव उनके विषय में विचार करना उचित है । चौतीस अतिशयों में जन्म संबंधी दश अतिशयों का वर्णन किया जा चुका है। फिर भी उनका नामोल्लेख उचित है ।
जन्म के अतिशय
अतिशय रूप, सुगंधतन, नांहि पसेव, निहार । प्रिय हित वचन अतुल्यबल रुधिर स्वेत प्राकार ॥ लक्षण सहसरु पाठ तन, समचतुष्क संठान ।
वज्रवृषभनाराच जुत ये जन्मत दशजान । तीर्थंकरों के केवलज्ञान होने पर घातिया कर्मक्षय करने से
(१) भगवान के दस जन्मातिशयों का पूज्यपाद स्वामी ने नंदीश्वर भक्ति में इस प्रकार वर्णन किया है :--
नित्यं निः स्वेदत्वं निर्मलता क्षीरगौररुधिरत्वं च। स्वाद्याकृतिसंहनने सौरुप्यं सौरभं च सौलक्ष्यम् ।।१।। अप्रमितवीर्यता च प्रिय-हित-वादित्व मन्यदमितगुणस्य । प्रथिता दश ख्याता स्वतिशयधर्मा स्वयंभुवो देहस्य ।।२।।
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