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तीर्थंकर आत्मा की निर्मलता का अनुकरण कर रहा है। इससे भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती है । राजवार्तिक में प्रकाश को आवरण करने वाली छाया है 'छाया प्रकाशावरणनिमित्ता' (पृ० २३३) यह लिखा है । भगवान का शरीर प्रकाश का आवरण न कर स्वयं प्रकाश प्रदान करता है । उनका शरीर सामान्य मानव का शरीर नहीं है ।
जिस शरीर के भीतर सर्वज्ञ सूर्य विद्यमान है, वह तो प्राची दिशा के समान प्रभात में स्वयं प्रकाश परिपूर्ण दिखेगा । इस कारण भगवान के शरीर की छाया न पड़ना कर्मों की छाया से विमुक्त तथा निर्मल आत्मा के पूर्णतया अनुकूल प्रतीत होती है ।
(६) अपक्ष्मस्पंदता अर्थात् नेत्रों के पलकों का बंद न होना । शरीर में शक्तिहीनता के कारण नेत्र पदार्थों को देखते हुए क्षण भर विश्रामार्थ पलक बन्द कर लिया करते हैं । अब वीर्यान्तराय कर्म का पूर्ण क्षय हो जाने से ये जिनेन्द्र अनंत वीर्य के स्वामी बन गए हैं। इस कारण इनके पलकों में निर्बलता के कारण होने वाला बन्द होना, खोलना रूप कार्य नहीं पाया जाता है । दर्शनावरण कर्म का क्षय हो जाने से निद्रादि विकारों का अभाव हो गया है, अतः सरागी देवों के समान इन जिनदेव को निद्रा लेने के लिए नेत्रों के पलक बन्द करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
स्वामी समन्तभद्र ने कहा है कि जगत् के जीव अपनी जीविका, काम सुख तथा तृष्णा के वशीभूत हो दिन भर परिश्रम से थक कर रात्रि को नींद लेते हैं, किन्तु जिनेन्द्र भगवान् सदा प्रमाद रहित होकर विशुद्ध आत्मा के क्षेत्र में जागृत रहते हैं। इस कथन के प्रकाश में भगवान के नेत्रों के पलकों का न लगना उनकी श्रेष्ठ स्थिति के प्रतिकूल नहीं है। (१) स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः । त्वमार्य नक्तं दिवमप्रमत्तवानजागरेवात्म-विशुद्धवर्त्मनि ॥२८॥
--स्वयंभूस्तोत्र
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