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- तीर्थकर __ आगम में कहा है, "कर्माभावो द्विविधः—यत्नसाध्योऽ यत्नसाध्यश्चेति । तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्यः असत्वात्" (सर्वार्थसिद्धि अध्याय १०, सूत्र २) कर्मों का अभाव यत्नसाध्य तथा प्रयत्नसाध्य रूप से दो प्रकार कहा गया है । चरमदेह वाले जीव के नरक, तिर्यंच तथा देवायु का अभाव अयत्नसाध्य है, क्योंकि वे तीन आयु की सत्ता रहित हैं। शेष साठ प्रकृतियों का क्षय यत्नसाध्य कहा गया हैं।
सामान्य दृष्टि से कहा जाता है कि वेसठ प्रकृतियों का क्षय करके केवली भगवान होते हैं । इनमें घातिया कर्म सम्बन्धी सेंतालिस प्रकृतियाँ रहती हैं । अघातिया की सोलह प्रकृति रहती है।'
भगवान ने मोह का क्षय करने के उपरान्त जब बारहवें क्षीण मोह गणस्थान पर आरोहण किया था, उस समय वे परमार्थ रूप में निर्ग्रन्थ-पदवी के स्वामी बने थे। इसके पर्व उसको निर्ग्रन्थ शब्द से कहते थे। उसमें नैगम नय की दृष्टि प्रधान थी। सर्वार्थसिद्धि में लिखा है, "चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षाप्रकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेपि ते निर्ग्रन्था इत्युच्यन्ते" (अ० ६ सूत्र ४७)-चारित्र के परिणमन की अधिकता, न्यूनता कृत भेद होते हुए भी नैगम, संग्रह आदि नयों की अपेक्षा पुलाकादि सभी मुनियों को निर्ग्रन्थ कहते हैं । 'निर्ग्रन्थ' शब्द का वाच्यार्थ है 'ग्रन्थ' रहित । 'ग्रन्थ' का अर्थ है मूर्छा अथवा ममत्व परिणाम । ये परिणाम मोहनीय कर्मजन्य हैं; अतएव मोह का अत्यन्त क्षय होने पर अन्वर्थ रूप में निर्ग्रन्थ अवस्था प्राप्त होती है ।
१ देव-शास्त्र-गुरु की पूजा में लोग पढ़ते है "चउ करम की त्रेसठ प्रकृति नास," यह ठीक नहीं है। चार घातिया कर्मों की सैंतालीस प्रकृतियाँ होती हैं । ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, अंतराय की पांच तथा मोहनीय की अट्ठाईस मिलकर ४७ होती हैं । इससे पूजा में यह पढ़ना चाहिए "करमन की त्रेसठ प्रकृति नास' वा 'चउकरम, तिरेसठ प्रकृति नास', क्योंकि चार कर्म मुख्य हैं।
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