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१७. ]
तीर्थकर रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, कामबाधा, पिपासा तथा क्षुधा की पीड़ा नहीं होती है । मुनिसुव्रतकाव्य में लिखा है :--
मिथ्यादृशः सदसि तत्र न संति मिश्राः । सासादनाः पुनरसंज्ञिवदप्यभव्याः॥ भव्याः परं विरचितांजलयः सुचित्ताः। तिष्ठंति देववदनाभिमुखं गणोाम् ॥१०--४६॥
जिन भगवान के उस समवशरण में अभव्य जीव, मिथ्यादृष्टि, सासादन गुणस्थानवाले तथा मिश्र गुणस्थानवाले जीव नहीं रहते हैं । द्वादश सभा में निर्मल चित्तवाले भव्य जीव ही बद्धांजलि होकर जिनेन्द्र के समक्ष रहते हैं ।
वापिकानों का चमत्कार
समवशरण में नंदा, भद्रा, जया तथा पूर्णा ये चार वापिकाएँ होती हैं। जिनेन्द्र भगवान का अद्भुत प्रभाव उन वापिकाओं में दिखता है । हरिवंशपुराण में कहा है :--
ताः पवित्रजलापूर्ण-सर्वपाप-रुजाहराः। परापरभवाः सप्त दृश्यंते यासु पश्यताम् ॥५७--७४॥
वे वापिकाएँ पवित्र जल से परिपूर्ण हैं तथा समस्त पाप और रोग को हरण करती हैं। उनमें देखनेवालों को अपने भूत तथा आगामी सप्तभव दिखाई पड़ते हैं।
स्तूप समूह
भगवान के समवशरण में स्तूपों का समुदाय बड़ा मनोरम होता है । तिलोयपण्णत्ति में लिखा है; भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में जिन तथा सिद्धों की प्रतिमाओं से व्याप्त नौनौ स्तूप होते हैं। (४-८४४) ये स्तूप छत्र के ऊपर छत्र से संयुक्त, फहराती हुई ध्वजाओं के समूह से चंचल अष्ट मङ्गल द्रव्यों से सहित और दिव्य रत्नों से निर्मित होते हैं। एक-एक स्तूप के बीच
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