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तीर्थकर स्थान को प्राप्त किया । अधः प्रवृत्तकरण के अंतर्मुहूर्त पश्चात् अपूर्व करण नाम के आठवें गुणस्थान को प्राप्त किया । यहाँ एक भी कर्म का क्षय नहीं होता है, किन्तु प्रत्येक समय में असंख्यात गुणित रूप से कर्म प्रदेशों की निर्जरा होती है ।
धवला टीका में लिखा है, “तदो अधापवत्तकरणं कमेण काऊणंतोमुहुत्तेण अपुवकरणो होदि । सोण एक्कं पि कम्म खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्ज-गुणसरुवेण पदेस-णिज्जरं करेदि" (भाग १, पृ० २१६)।
*सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि अपूर्वकरण क्षपक गुणस्थान वाला पाप प्रकृतियों की स्थिति तथा अनुभाग को न्यून करता है तथा शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को वृद्धिंगत करता है । "अपूर्वकरण-प्रयोगेणापूर्वकरण-क्षपकगुणस्थान-व्यपदेशमनुभूय तत्राभिनव-शुभाभिसंधि-तनूकृत-पापप्रकृति-स्थित्यनुभागो विवर्धितशुभकर्मानुभवो" (अ० १०, सू० १, पृ० २३६) । इसके अनंतर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त करके सत्कर्म-प्राभृत के उपदेशानुसार स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय करते हैं । अंतर्मुहूर्त के पश्चात् वे प्रत्याख्यानावरण तथा अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप कषायाष्टक का नाश करते हैं। (धवला टीका भा० १, पु० १ पृ० २१७) ।
*शुक्लध्यान तथा शुद्धोपयोग के सद्भाव में भी अपूर्वकरण गुणस्थान म पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग की वृद्धि होती है तथा पाप का क्षपण होता है; प्रतः पाप और पुण्य को समान मानने की एकान्तदृष्टि अयोग्य है ।
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