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तीर्थंकर
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नाम के ग्यारहवें गुणस्थान में उन्होंने प्राण विसर्जन कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर ग्रहमिन्द्रता प्राप्त की थी ।
इस प्रकार शुक्लध्यानी, शुद्धोपयोगी उन प्रभु का दो बार मोहनीय कर्म से युद्ध हो चुका था । मोहनीय का पूर्ण क्षय न करने के कारण ये सर्वार्थसिद्धि में तेतीस सागर पर्यन्त ग्रहमिन्द्र रहे । गोम्मटसार कर्मकांड की गाथा ५५६ की संस्कृत टीका में लिखा है :-- उपशांतगुणश्रेण्यां येषां मृत्युः प्रजायते ।
• अहमिन्द्रा भवन्त्येते सर्वार्थसिद्धिसद्मनि ॥ पृष्ठ ७६२ ॥ उपशांत-कषाय गुणस्थान में जिनकी मृत्यु होती है, सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र होते हैं ।
मोह के मूलोच्छेद का उद्योग
अब मोहनीय कर्म को जड़ मूल से नष्ट करने के लिए भगवान ने विशेष प्रकार की सामग्री एकत्रित की थी । एक कुशल शासक के रूप में उन्होंने विशेष प्रकार के योद्धा का रूप धारण किया था :
शिरस्त्राणं तनुत्रं च तस्यासीत् संयमद्वयम् ।
जैत्रमस्त्रंच सद्ध्यानं मोहारति बिभित्सतः ॥। २०--२३५।।
भगवान ने मोहशत्रु के क्षय करने के लिए इंद्रिय संयम को शिर की रक्षा करने वाला टोप और प्राणिसंयम को शरीर रक्षक कवच बनाया था । उत्तम ध्यान को जयशील अस्त्र बनाया था ।
अंतर्युद्ध का चित्ररण
ध्यान के द्वारा कर्म शत्रुओं का पर- प्रकृतिरूप संक्रमण हो रहा था । कर्मों की शक्ति क्षीण हो रही थी । अब भगवान ने क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने की पूर्ण तैयारी कर ली । क्षायिक सम्यक्त्वी होने से मोहनीय की अनंतानुबंधी चतुष्क तथा दर्शन - मोहत्रिक इन सात प्रकृतियों का क्षय हो चुका था । उन्होंने सातिशय अप्रमत्त गुण
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