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तीर्थंकर
कषायप्राभृत की देशना
इस विषय में कषायप्राभृत शास्त्र की भिन्न प्रतिपादना है । उसके उपदेशानुसार पहले कषायाष्टक का क्षय होता है; पश्चात् उक्त सोलह प्रकृतियाँ नष्ट होती हैं । इसके अनन्तर नपुंसक वेद का क्षय करके अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त स्त्रीवेद का क्षय होता है । पश्चात् नोकषाय षट्क का पुरुषवेद रुप में, पुरुषवेद का क्रोध संज्वलन में, क्रोध संज्वलन का मान संज्वलन में, मान संज्वलन का माया संज्वलन में माया संज्वलन का लोभ संज्वलन में क्रमश: बादर कृष्टि विभाग से क्षय करके बादर लोभ संज्वलन को कृष करके सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान को प्राप्त करते हैं ।
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क्षीरणमोह गुरणस्थान की प्राप्ति
लोभ संज्वलन का क्षय कर क्षीण मोह नाम के बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं । वहाँ उपान्त्य अर्थात् द्विचरिम समय में निद्रा तथा प्रचला प्रकृति का क्षय करके अन्तिम समय में पंच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पंच अन्तराय इन सोलह प्रकृतियों का क्षय करके सयोगकेवली जिन होते हैं । धवला टीका में लिखा है; "एदेसु सद्विकम्मेसु खीणेसु सोगिजिणो होदि । सजोगिजिणो ण किंचि कम्मं खवेदि" ( भाग १, पृ० २२३ ) – इस प्रकार साठ प्रकृतियों का क्षय करके सयोगी जिन होते हैं । सयोगी जिन कोई भी कर्म का क्षय नहीं करते हैं । सयोगी जिन भगवान के ८५ प्रकृतियों का सद्भाव कहा गया है; अतः १४८ में से ६३ प्रकृतियों का क्षय होने पर शेष ८५ प्रकृतियाँ रहती हैं । पूर्वोक्त कर्म प्रकृतियों के क्षपण - क्रम के अनुसार साठ प्रकृतियों का क्षय बताया है ।
विचाररणीय विषय
इस कारण यह बात विचारणीय है कि तीन प्रकृतियों के क्षय का क्यों नहीं उल्लेख किया गया ?
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