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तीर्थंकर
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का मंगलमय दर्पण ही हो ।
प्रास्थान-मंडलस्यास्य विन्यासं कोऽनुवर्णयेत् । सुत्रामा सूत्रधारोऽभूनिर्माणे यस्य कर्मठः ॥७॥
भला, उस समवशरण की रचना का कौन' वर्णन कर सकता है, जिसके निर्माण कार्य में कर्मशील इन्द्र महाराज स्वयं सूत्रधार थे।
समवशरण वर्णन
समवशरण के बाहर रत्नों की धूलि से निर्मित परकोटा था, जिसे धूलीसाल कहते हैं । इस धूलीसाल के बाहर चारों दिशाओं में सुवर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित चार द्वार शोभायमान हो रहे थे । धूलीसाल के भीतर जाने पर कुछ दूरी पर चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तंभ था । वे मानस्तंभ महा प्रमाण के धारक थे । घंटानों से घिरे हुए थे; चामर तथा ध्वजारों से शोभायमान थे ।
मानस्तम्भ
___उन स्वर्णमय मानस्तभों के मूलभाग में जिनेन्द्र भगवान की सुवर्णमय प्रतिमाएं विराजमान थीं, जिनकी इन्द्र आदि क्षीर सागर के जल से अभिषेक करते हुए पूजा करते थे। 'उन मानस्तम्भों के मस्तक पर तीन छत्र फिर रहे थे । इन्द्र के द्वारा बनाए जाने के कारण उनका दूसरा नाम इन्द्रध्वज भी रूढ़ हो गया था।
मानस्तंभान् महामानयोगात् त्रैलोक्यमाननात् ॥ अन्वर्थसंज्ञया तज्ज्ञ निस्तम्भाः प्रकीर्तिताः ॥२२--१०२॥
उनका प्रमाण बहुत ऊँचा था, त्रैलोक्य के जीवों द्वारा मान्य होने से विद्वान् लोग उन मानस्तम्भों को सार्थक रूप से मानस्तम्भ कहते थे।
१ हिरण्मयी जिनेन्द्रााः तेषां बन-प्रतिष्ठिताः । देवेन्द्राः पूजयंतिस्म क्षीरोदांभोभिषेचनैः ॥२२-६८॥ म० पु०
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