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तीर्थकर
[ १७ कर्मेन्धानानि निर्दग्धं उद्यतः स तपोग्निना। दिदीप नितरां धीरः प्रज्वलन्निव पावकः ॥२०-१८५॥ महापुराण
वे वृषभदेव तीर्थकर तप रूपी अग्नि के द्वारा कर्म रूपी ईंधन को जलाने को उद्यत हुए । अतः वे धीर प्रभु अत्यन्त दैदीप्यमान अग्नि के समान शोभायमान होते थे। उस समय भगवान असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्मों की निर्जराकर रहे थे। वे भगवान भिन्नभिन्न निर्जन स्थलों पर जाकर आत्मध्यान किया करते थे।
कदाचित् गिरिकुंजेषु कदाचिद् गिरिकन्दरे। कदाचिच्चाद्रिशृंगेषु दध्यावध्यात्म-तत्ववित् ॥२०--२११॥
अध्यात्मतत्व के ज्ञाता वे प्रभु कभी पर्वत के लतागृहों में, कभी गिरिगुहाओं में, कभी पर्वत की शिखरों पर ध्यान किया करते थे ।
जिनसेन प्राचार्य कहते हैं :---
मौनी ध्यानी स निर्मानो देशान् विहरन् शनैः । परं पुरिमतालाख्यं सुधीरन्येधु रासदत् ॥२०-२१८॥
अपूर्व ध्यान
मौनी, ध्यानी, निर्मानी वे बुद्धिमान भगवान धीरे-धीरे अनेक देशों का विहार करते हुए एक दिन पुरिमतालपुर नाम के नगर के समीप पहुँच गए।
वहाँ वे नगर के समीपवर्ती शकट नामके उद्यान के वट वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके एक शिला पर ध्यान के हेतु विराजमान हो गए। उन्होंने सिद्ध परमेष्ठी के अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व
और अगुरुलघुत्व इन गुणों का ध्यान किया। इतने लम्बे अभ्यास के द्वारा प्रभु का मनोबल अत्यन्त वर्धमान हो चुका है।
*हरिवंशपुराण में नगर का नाम पूर्वतालपुर तथा उद्यान का शकटास्य नाम आया है। (सर्ग ६, २०५)।
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