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तीर्थकर
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सज्जनों का कर्तव्य
सत्पुरुषों को विषधरों से डरना नहीं चाहिए । नागदमनी रूप जिनभक्ति का आश्रय ले अात्म शुद्धि के मार्ग में उन्नति करते जाना चाहिये । जिसके हृदय में वीतराग की भक्ति है, आगम की श्रद्धा है, यथार्थ में उसका कोई भी बिगाड़ नहीं कर सकता है।
आचार्य मानतुंग का यह पद्य बहुत प्रेरणादायी है :--- सम्पूर्णमण्डलशशांककलाकलाप-। शुभ्रपुणास्त्रिभुवनं तव लन्धयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकम् । कस्तानिवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
हे ऋषभनाथ भगवान ! पूर्णचन्द्रमा की कलाओं के समान आपके निर्मल गुण त्रिलोक को लाँघते हैं—तीन लोक में व्याप्त हो जाते हैं। जिन्होंने त्रिभुवन के स्वामी एक आपका शरण ग्रहण किया है, उनको इच्छानुसार संचरण करते हुए कौन रोक सकता है ?
इस विषय में इतना ही लिखना उचित प्रतीत होता है कि विवेक के प्रकाश में वात्सल्य दृष्टि को सजग रखते हुए सत्पुरुषों को साधु-भक्ति और सेवा द्वारा अपने जीवन को सफल बनाते हुए जिनदेव से प्रार्थना करना चाहिए कि उनकी भक्ति के प्रसाद से संयमी की सेवा के प्रसाद रूप में स्वयं का जीवन भी उस साम्य भाव से अनुप्राणित हो वीतरागवृत्ति की ओर अग्रसर हो ।
शरीर निग्रह द्वारा ध्यान-सिद्धि
भगवान ने कठोर से कठोर तपोग्नि में कर्मों को नष्ट करने का महान उद्योग अंगीकार किया था। इसमें संदेह नहीं है कि मनोजय के द्वारा कर्मों का क्षय होता है । उस मन को इन्द्रियों के द्वारा विकारवर्धक सामग्री प्राप्त होती है। शरीर द्वारा कठोर तप करने से उन्मत्त इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं। प्राचार्य कहते हैं कि भगवान ने घोर
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