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तीर्थकर
[ १३९ इसलिए उनके समान उज्ज्वल पुण्य के संग्रह में विवेकी गृहस्थों की प्रवृत्ति कल्याणकारी है; क्योंकि इससे उक्त जीवों के समान यह आत्मा विकास को प्राप्त कर निर्वाण अवस्था को प्राप्त कर सकेगा । मिथ्यादृष्टि भी सत्पात्रदान की हार्दिक अनुमोदना करके उत्तम भोगभूमि में अपार सुख प्राप्त करता है । मुनिभक्ति की बड़ी महिमा
प्रात्म-निरीक्षण
आश्चर्य की बात है कि मनुष्य आत्म निरीक्षण कर सत्यता पूर्वक यह सोचने का प्रयत्न नहीं करता, कि मैं हिंसा, माया, असत्य, प्रमादादि की मलिनता में डूब रहा हूँ तथा जीवन दीप बुझने के बाद अपनी असत् प्रवृत्ति तथा प्रार्तध्यान-रौद्रध्यान के फलस्वरूप तिर्यंचगति की निपट अज्ञानी की स्थिति में पहुंचूंगा, अथवा अनन्त दुःखों से पूर्ण नरक में निवास करूंगा। यह विचारकर बड़ी व्यथा होती है, कि आजकल पढ़कर आदमी आदर्श जीवन बनाने से विमुख होकर दूसरों को ठगने के साथ साथ अपने आपको ही टगते संकोच नहीं करता । असत् तर्क का अाश्रय ले यह अपनी स्वच्छन्द पापमयी प्रवृत्तियों पर परम पवित्र अध्यात्मवाद का मनोहर आवरण डालता हुआ ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई मूढ़ अपने शरीर के भयँकर फोड़े की पीप आदि जहरीली सामग्री को बिना साफ किए ऊपर से सुन्दर दिखने वाला वस्त्र पहिनकर उसे ढांक ले । इस प्रक्रिया से वह घाव
और भयंकररूप होता है। इसी प्रकार पुण्य के साधनों में दोषदर्शन करता हुआ तथा उनको छोड़कर पाप कार्यों में निमग्न रहने वाला गृहस्थ ऐसा ही विचार विहीन है, जैसे पानी को छोड़कर पेट्रोल राशि द्वारा शरीर को स्वच्छ करने के साथ अग्नि के समीप बैठने वाला व्यक्ति, जो क्षण भर में अपनी विचार शून्यता के कारण जलकर भस्म हो जाता है।
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