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तीर्थंकर
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साम्राज्यादि का परित्याग कर क्यों दिगम्बर साधु बनते ? अतएव गृहस्थ का कर्तव्य है कि मुक्ति की उपलब्धि को जीवन का केन्द्र बिन्दु मानकर उस ओर आगम के अनुसार प्रवृत्ति करे । अनुभवी तथा सिद्धहस्त व्यक्तियों का मार्ग दर्शन छोड़कर अज्ञानी, अविवेकी तथा अतत्वज्ञ का अवलंबन स्वीकार करने वाला संसार - सिंधु के मध्य डूबे बिना नहीं रहता ।
दान द्वारा जनहित
इस कारण चतुर गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह सत्पात्र दान के विषय में अत्यधिक उत्साह धारण करे । श्रावक के सप्तशीलों में अतिथि संविभाग नामक व्रत बताया गया है । यदि गृहस्थ इस बात के महत्व को समझकर विवेक पूर्वक द्रव्यादि का उपयोग करे तो जगत् में संपन्न वर्ग तथा निर्धनवर्ग के बीच जो क्रूर संघर्ष प्रारम्भ हुआ है, उसका मधुर रूप में परिणमन हो सकता है ।
स्वामी समंतभद्र की यह वाणी कितनी मार्मिक तथा अर्थवती है
उच्च गॊत्रं प्रणते भोंगो दानादुपासनात्पूजा ।
भक्तेः
: सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥ ११५ ॥ रत्नकरंड श्रावकाचार तपोनिधि साधुओं को प्रणाम करने से उच्चगोत्र, दान देने से भोग्य सामग्री की विपुलता, उनकी उपासना से पूजा, भक्ति करने से सुन्दर रूप तथा उनकी स्तुति करने से कीर्ति की प्राप्ति होती है । बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य है कि साधुओं को प्रणाम करे, उनकी उपासना करे, भक्ति करे तथा स्तवन करे । इन कार्यों के फल स्वरूप उसे उपरोक्त समस्त सदगुणों तथा विशेषताओं की उपलब्धि होगी ।
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अनुमोदना का सुफल
जो व्यक्ति सत्पात्रों के दान की हृदय से अनुमोदना करते
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