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तीर्थकर
] १२५ इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनधर्म की तपस्या में अतिरेकपूर्ण प्रवृत्ति का उपदेश नहीं है। इससे जो आज कल के लोग बुद्ध की तपस्या का उल्लेख करते हुए जैनधर्म की तपस्या की कठोरता का कथन कर उस पर आक्षेप करते हैं, वह उचित नहीं है । जैनधर्म स्वयं मध्यम पथ का प्रतिपादक है ।
कायक्लेश की सीमा
यह कथन भी मनन करने योग्य है :---
कायक्लेशो मतस्तावन्न क्लेशोस्ति यावता। संक्लेशे ह्यसमाधानं मार्गात् प्रच्युतिरेव च ॥२०-८॥
कार्यक्लेश तप उतना ही करना चाहिए, जहाँ तक संक्लेश नहीं उत्पन्न होता है । संक्लेश होने पर मन में स्थिरता नहीं रहती है तथा जीव मार्ग से भी च्युत हो जाता है।
सिध्यै संयमयात्रायाः ततनुस्थितिमिच्छभिःः। ग्राह्यो निर्वोष प्राहारो रसासंगाद्विनर्षिभिः ॥६॥
अतएव संयम रूप यात्रा की सिद्धि के लिये शरीर स्थिति को चाहने वालों को रसों में प्रासक्त न हो निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिये।
पाहारार्थ विहार
अब आहार ग्रहण करने के उद्देश्य से भगवान ने विहार प्रारम्भ कर दिया । उस कर्मभूमि के प्रारम्भ में मुनिदान कैसे दिया जाता है, इस विषय को कोई नहीं जानता था। भगवान मौनव्रती थे। उनका भाव कोई नहीं जानता था । ऐसी अद्भत परिस्थितिवश भगवान को आहार का लाभ नहीं हो रहा है ।
त्रिलोकीनाथ आहार के हेतु भ्रमण कर रहे हैं, किन्तु अन्तराय कर्म का तीव्र उदय होने से आहार का लाभ नहीं होता था। भक्त प्रजाजन प्रभु के समीप बड़े अादर, ममता और भक्तिपूर्वक विविध पदार्थ भेंट में लाते थे, किन्तु उनसे उन प्रभु का कोई प्रयोजन न था ।
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