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तीर्थकर
_[ १३३ जो जिनेन्द्र भगवान का दुग्ध की धारा द्वारा अभिषेक करते हैं, वे क्षीर सदृश धवल विमान में जन्म लेकर निर्मल दीप्ति को प्राप्त करते हैं।
हरिवंशपुराण में भी उक्त कथन का इस प्रकार समर्थन किया गया है :
क्षोरेमुरस-धारो-घृत-दघ्युदकादिभिः।
अभिषिच्य जिनेन्द्रामिचितां नृसुरासुरैः ॥२२--२१॥
क्षीर तथा इक्षुकी धारा के प्रवाह द्वारा तथा घृत, दधि, जल आदि से जिनेन्द्र देव की अभिषेक पूर्वक जो पूजा करता है, वह मनुष्यों तथा सुरासुरों द्वारा पूजित होता है । प्रायुर्वेद का अभिमत
दूध के विषय में आयुर्वेद शास्त्र कहता है, कि भोजन पहले खलभाग रूप परिणत होता है । इसके पश्चात् वह रस रूपता धारण करता है । रस बनने के अनन्तर दूध का रक्त बनता है । धारोष्ण दूध को इसीलिए आयुर्वेद में महत्वपूर्ण कहा है कि वह तत्काल ही शरीर में जाकर रुधिर रुप पर्याय को प्राप्त करता है । दूध को गोरस कहने से भी स्पष्ट होता है कि वह रस रूप पर्याय है । दूध के दुहने से गाय क्षीण नहीं होती, किन्तु रक्त निकालने से उस जीव में क्षीणता पाती है, वेदना की वृद्धि होती है । दूध के सेवन से सात्विक भावों का उदय होता है । रुधिर, मांसादि सेवी नर क्रूर परिणामी बन जाते हैं।
दूध में माँस का दोष माना जाय, तो सभी मनुष्य मांसभक्षी व्याघ्र आदि की श्रेणी में आ जावेंगे, क्योंकि बिना दूध पिये बालक का प्रारम्भिक जीवन ही असम्भव है । शरीर रचना की दृष्टि से मनुष्य की समानता शाक तथा फल भोजी प्राणियों के साथ है। मांसभक्षी निरन्तर अशान्त, क्रूर, चंचल तथा दुष्ट स्वभाव वाले होते हैं जबकि दूध के सेवन से ऐसी बात नहीं होती है ।
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