________________
६० ]
तीर्थकर अर्थ नीति
शासन का संचालन अर्थ संग्रह की अपेक्षा करता है, इसलिए राजा प्रजा से कर अर्थात् टैक्स लिया करता है। इस विषय में प्रभु की नीति बड़ी मधुर थी।
पयस्विन्या यथा क्षीरम् अद्रोहणोपजीव्यते ।
प्रजाप्येवं धनं दोह्या नातिपीड़ाकरःकरैः ॥१६--२५४॥
जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे बिना किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए दूध दुहा जाता है, उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से धन लेना चाहिए । अति पीडाकारी करों के द्वारा धन संग्रह नहीं करना चाहिये ।
भगवान के नामान्तर
भगवान के द्वारा कर्मभूमि की प्रजा को अवर्णनीय सुख और शांति मिली थी। जगत् में भगवान को ब्रह्मा, विधाता आदि नामों से पुकारते हैं। महापुराणकार कहते हैं कि ये नाम भगवान के ही पर्यायवाची थे। उन्होंने कर्मभूमि रूपी जगत् का निर्माण किया था।
विधाता विश्वकर्मा च स्रष्टा चेत्यादिनामभिः । प्रजास्तं व्याहरतिस्म जगतांपतिमच्युतम् ॥२६७॥
इसके सिवाय तीनों जगत् के स्वामी और विनाश रहित भगवान को प्रजा विधाता, विश्वकर्मा और स्रष्टा आदि अनेक नामों से पुकारती थी।
प्रभु की लोक कल्याण में निमग्नता
____जिसे लोक-कल्याण, परोपकार, दीनोद्धार आदि शब्दों द्वारा संकीर्तित करते हैं, उस कार्य में भगवान का बहुमूल्य जीवन व्यतीत हो गया । कुरल काव्य में लिखा है “प्रत्येक दिन, यद्यपि वह अत्यधिक मधुर प्रतीत होता है, वास्तव में हमारी आयु की अवधि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org