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तीर्थंकर मानो ये प्रकृति माता की गोद में ही बैठे हों। मुनि सामान्य के लिए परमागम में प्रतिपादित अट्ठाईस मूलगुणों का ये पालन करते थे । तीर्थकर होने के कारण इनको संयम पालन में कोई विशेष सुविधा नहीं दी गई थी। दीक्षा लेने के पश्चात् ये सिंह सदृश एकाकी साधु परमेष्ठी के रूप में थे । ये न प्राचार्य पदवी वाले थे, न उपाध्याय पद वाले थे। ये तो साधुराज थे। इनको देखकर यह प्रतीत हो जाता है, कि परमार्थ दृष्टि से साधु का पद बहत ऊँचा है । जब प्रात्मा श्रेणी पर आरोहण करता है, तब वह साधु ही तो रहता है । प्राचार्य, उपाध्याय तो विकल्प की अवस्थाएँ हैं । निर्विकल्प स्थिति को प्राप्त करने के लिए इन उपाधियों से भी मुक्त होना आवश्यक है। ये भगवान कर्तृत्व, भोक्तृत्व की विकृत दृष्टि के स्थान में ज्ञातृत्व भाव को अङ्गीकार करते हुए ज्ञानचेतना जनित प्रात्मरस का पान करते हैं । ऋषभनाथ भगवान ने छह माह का उपवास किया था (छह माह अन्तराय हुए थे) । इसका वास्तविक भाव यह था, कि उन देवाधिदेव के शरीर को पोषक अन्नादि पदार्थ उतने काल तक नहीं मिलेंगे। अध्यात्मतत्व की दृष्टि से विचारने पर ज्ञात होगा, कि भगवान वैराग्य रस का विपुल मात्रा में सेवन कर अपनी आत्मा को अपूर्व प्रानन्द तथा पोषण प्रदान कर रहे हैं। ये मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हैं। इनकी आत्मा बाह्य द्रव्यों में विचरण नहीं करती है । मोक्ष प्राप्ति का मूलमंत्र समयसार में बताया गया है, उसकी ये सच्चे हृदय से पाराधना करते हैं। प्रत्येक मुमुक्षु के लिए यह उपदेश अत्यन्त आवश्यक है । कुंदकुंद स्वामी कहते हैं :
मोक्ष पथ
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चैव साहितं चेय। तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ॥४१२॥ समयसार हे भद्र ! तू मुक्तिपथ में अपनी आत्मा को स्थापित कर । उसी
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