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तीर्थकर
इस विचित्र प्रश्न के समाधान हेतु यह सोचना आवश्यक है कि सभी की मानसिक स्थिति एक प्रकार की नहीं रहती । तीव्र कर्मसंचय होने पर मन की चंचलता समुद्र की लहरों को भी पराजित कर देती है । ऊपर से सुन्दर सुरूप दिखने वाले शरीर के भीतर अनेक विकार पाए जाते हैं तथा बाहर से कुरूप होते हुए भी नीरोगता पूर्ण देह की उपलब्धि होती है । इसी नियम के प्रकाश में आत्मा के विषय में भी चितवन करना चाहिए । व्यावहारिक दृष्टि से विश्ववंद्य होते हुए भी अंतरंग दोष राशि का संचय देखकर योगीजन प्रात्मशुद्धि के लिए तप रूपी अग्नि में प्रवेश करते हैं । ग्रात्म सामर्थ्य तथा ग्रावश्यकता का विचार कर महाज्ञानी प्रादिनाथ भगवान ने उग्र तपश्चर्या प्रारम्भ की थी ।
कोई सोचता है, इतना महान् तप न कर भगवान को सरलतापूर्ण पद्धति को स्वीकार करना चाहिए था ।
यह विचार दोष पूर्ण है । खदान से निकले हुए मलिन रूपधारी सुवर्ण पाषाण को भयंकर अग्नि में डालते समय यह नहीं सोचा जाता, कि इस बेचारे सुवर्ण के प्रेमवश अग्नि दाहादि कार्य नहीं किए. जय । वहाँ तो यह कहा जाता है, जितनी भी अग्नि प्रज्ज्वलित की जा सके, उसे जलाकर सोने को शुद्ध करो । अग्नि सोने को तनिक भी क्षति नहीं पहुँचाती है । उसके द्वारा दोष का ही नाश होता है । यही स्थिति तपस्या की है । तपोग्नि के द्वारा आत्मा के चिरसंचित दोष नष्ट होकर आत्मा परम विशुद्ध बनती है ।
बाह्य-तप साधन है, साध्य नहीं
बाह्य तप स्वयं साध्य नहीं है । अंतरंग तप की उपलब्धि का वह महान् साधन है । अतएव आत्मा को शुद्ध करने वाले अंतरंग तप का साधक होने से यथा शक्ति बाह्य तप का अवश्य प्रश्रय लेना चाहिये । तत्वज्ञानी निर्ग्रन्थ शरीर को ग्रात्म ज्योति से पूर्ण भिन्न
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