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तीर्थंकर
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गीत प्रारम्भ करने के लिए वैराग्यपूर्ण वसन्त ऋतु ही चाहिये थी, जिससे सब कष्टों का सदा के लिए अन्त हो जाता है। योग्य वेला देखकर ये देवर्षि भगवान के समीप आए ।
प्रभु को प्रणाम कर कहने लगे "भगवन् ! आपने मोह के जाल से छूटने का जो पवित्र निश्चय किया है, वह आप जैसी उच्च आत्मा की प्रतिष्ठा के पूर्णतया अनुरूप है । अब तो धर्मतीर्थ प्रवर्तन क योग्य समय आ गया है" - " वर्तते कालो धर्मतीर्थ - प्रवर्तने" । हरिवंशपुराण का यह पद्य बड़ा मार्मिक है :--
चतुर्गति- महादुर्गे दिङ्मूढस्य प्रभो दृढं ।
मागं दर्शय लोकस्य मोक्षस्थानप्रवेशकं ।। १-- ६६ ।।
हे नाथ! चारोंगतिरूप महाटवी में दिशाओं का परिज्ञान न होने से भटकते हुए जीवों को मुक्ति पुरी में पहुँचने का सुनिश्चित मार्ग बताइये |
विश्रामन्त्यधुना गत्वा संतस्त्वद्दशिताध्वना ।
ध्वस्तजन्मश्रमा नित्यं सौख्ये त्रैलोक्यमूर्धनि ॥६-- ७०॥
प्रभो ! अब आपके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर सत्पुरुष जन्मश्रम शून्य होकर त्रिलोक के शिखर पर, जहाँ अविनाशी आनन्द है, पहुँचकर विश्राम करेंगे । वैराग्य की अनुमोदना के उपरान्त वे स्वर्ग चले गए ।
अभिषेक की अपूर्वता
इसके अन्तर चारों निकायके देव आए । उन्होंने क्षीर सरोवर के जल से भगवान का अभिषेक किया । जन्मकल्याणक के समय निर्मल शरीर वाले बाल - जिनेन्द्र के शरीर का महाभिषेक हुआ । आज वेराग्य को प्राप्त मोक्षपुरी को जाकर अपने आत्म-साम्राज्य को प्राप्त करने को उद्यत प्रभु के अभिषेक में भिन्न प्रकार की मनोवृत्ति है । आज तो ऐसा प्रतीत होता है कि बाह्य शरीर के अभिषेक के बहाने ये सुरराज अन्तःकरण में जागृत ज्ञान ज्योति से समलंकृत श्रात्म
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