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तीर्थकर
भगवान के विचार
भगवान ने यह तत्व हृदयंगम किया, कि प्रात्मा की कालिमा को धोकर उसे निर्मल बनाने के लिए समाधि अर्थात् प्रात्मध्यान की ग्रावश्यक्ता है । जनाकीर्ण जगत् के मध्य में रहने से व्यग्रता होती है, भावों में चंचलता आती है तथा चंचल मन अत्यन्त सामर्थ्यहीन होता है; अतएव चित्त वृत्ति को स्थिर बनाकर मोह को ध्वंस करने के लिए ही ये प्रभु आवश्यक कार्य संपादन में संलग्न हैं ।
तीर्थंकर भगवान के कार्य श्रेष्ठ रहे हैं, अतएव तपस्या के क्षत्र में भी इनकी अत्यन्त समज्ज्वल स्थिति रहती है। वैराग्य से परिपूर्ण इनका मन अात्मा की अोर पूर्ण उन्मुख है । अब वह अधिक बहिर्मखता को प्रात्महित के लिए बाधक मोच रहा है।
प्रजा को उपदेश
अपने समीप में स्थित प्रजा को प्रभु ने कहा 'शोकं त्यजत भो: प्रजा:'---अरे प्रजाजन ! तुम शोक भाव का परित्याग करो। हमने तुम्हारी रक्षा के हेतु भरत को राजा का पद दिया है, 'राजा वो रक्षणे दक्षः स्थापितो भरतो मया । तुम भरतराज की सेवा करना । भगवान ने सर्वतोभद्र नरेन्द्र भवन परित्याग करते समय एकबार पहले बंध वर्ग से पूछ लिया था, फिर भी उन जगत् पिता ने सर्व इष्ट जनों को धैर्य देते हुए पुनः अनुज्ञा प्राप्त की। यह उनकी महानता थी।
दीक्षा विधि
उस वन में देवों ने चन्द्रकांतमणि की शिला पहिले ही रख दी थी। इन्द्राणी ने अपने हाथों से रत्नों को चूर्णकर उस शिला पर चौका बनाया । उस पर चन्दन के मांगलिक छींटे दिए गए थे। उस शिलाके समीप ही अनेक मंगल द्रव्य रखे थे। भगवान उस शिला पर विराजमान हो गए। आसपास देव, मनुष्य, विद्याधरादि उपस्थित थे।
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